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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७१८ ज्ञाताधर्मकथाङ्गमा लक्ष संख्यै द्रव्यैः पणिएहिय, पणि व्यवहारैतरूपव्यवहारैः 'जयं करे माणे' जयं कुर्वन-परेषां मयापोतानां पराजयं कुर्वन् विहरति-विचरति । ___ 'एवामेव समणोउसो' हे आयुष्यमन्तः श्रमगा! एवमेव-जिनदत्तपुत्र सार्थवाहवदेव योऽस्माकं निर्ग्रन्थो वा निग्रंन्धी वा प्रवजितः सन् पश्चत पाणातिपातविरमणादिमहावतेषु षटमु जीवनिकायेषु नेग्रन्थे प्रवचने च निश्शङ्कितः कस्मिंश्चिदेकस्मिन तत्वे अश्रद्धानादिरूपादेशशङ्का सफलतत्वाबीच श्रृंगाटक, त्रिक, चतुष्क, चत्वर. और महापों में सौ, हजार. लाख, द्रव्यों की शर्त लगा कर दूसरों के मया पोतकोंको पराजित करने लगा। (एवामेव समणाउमो ! जो अम्हं निग्गंथो वा निग्गंधी वा पाइए समणे पंचसु महाभएमु छ मु जो पनि कामु निग्गंधपायगे निस्संहिए। निकी वए नि तिगिच्छे से णं इहभवे चेव बहणं समगागं बहसमणीग जाव वीइइस्सइ) हे आयुष्मन्त श्रमणो। इसी तरह जिनदनपुत्र सार्थवाह की तरह -जो हमारे निर्ग्रन्थ साधु अथवा निर्ग्रन्थ साध्वीजन प्रत्रजित होकर पंच प्राणातिपात विरमणरूप-महारतों में छह जीवनिकायों में, निग्रन्थ संबन्धी प्रवचनमें अथवा साधुमार्ग में निःशंकित होकर निःकांक्षित, निचिकित्सासंपन्न होकर, विचरते हैं वे इस भव में अनेक श्रमण और अनेक श्रमणियों के यावत अचनीय होते हैं पूजनीय होते हैं। तथा इस अनादि अंनतरूप चतुर्गतिवाले संसार के पार पहुँच जाते है। अर्थात् इस संसार सागर को पार कर देते हैं। शंका दो प्रकार की होती है-- १ एक देश शंका २ दूसरी सर्वदेश शंका। अहंत प्रति भाषित किसी एक तत्व में अश्रद्धान आदिरूप आत्मवृत्ति का नाम एक देश Nex, त्रि, यतु, य१२, अने महापयामा मेसी, १२, साम द्रव्यानी शरत लवान भी भाशुसाना भरना अय्यांसान सा साध्य. (एवामेव समणाउसो ! जो अम्हें निग्गंयो वा निग्गंथीया पवइए समाणे पंचसु महब्बएमु छसु जीवनिकाएमु निग्गंथपावयणे निस्स किए नकंखिए निधितिगिच्छे सेण इहभवे चेव बहण समणाण बहूण समणीण जाव वीइ. वइस्सइ) आयुष्मन्त श्रभो!! सार्थ वा निहत पुत्री भरे सभा२। નિગ્રંથ સાધુ કે નિથ સાધ્વીજને પ્રજિત થઈને પંચ પ્રાણાતિપાત વિરમણ રૂપ મહાવ્રતમાં. છ જવનિકામાં, નિગ્રંથ સંબંધી પ્રવચનમાં, અને સાધુમાર્ગમાં નિઃશંકિત થઈને નિકાંક્ષિત નિવિચિકિત્સા ચુકત થઈને વિચરણ કરે છે તેઓ આ ભવમાં ઘણું શ્રમ અને ઘણી શ્રમણએને માટે અર્ચનીય હોય છે તેમજ પૂજનીય હોય છે. અને છેવટે અનંત રૂપે ચતુર્ગતિવાલા સંસાર સમુદ્રને પાર પામે છે. એટલે કે તેઓ આ સંસાર સમુદ્રને તરી જાય છે. અહીં બે જાતની શંકાઓ ઉદ્દભવે છે– (૧) દેશ શંકા, (૨) બીજી સર્વ દેશ શંકા અહંતવડે આજ્ઞાપિત કેઈપણ એક તત્વમાં અશ્રદ્ધાન વગેરેની આત્મવૃત્તિ For Private and Personal Use Only
SR No.020352
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages762
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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