SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 670
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६५. ज्ञाताधर्म कथाङ्गसूत्रे निच्च तत्थे, निच्चं तसिए, निच्चं परमसुहसबद्ध नरगः' इत्येतेषां सं ग्रहः, तत्र-'गंभीर' गम्भीरः प्रचुरः 'लोमहरिसे' रामहर्ष: भय जनितरोमांचो यस्य सः, 'भीमे' भीमा भयङ्करः, अत एव 'उत्तासणाए' उत्त्रासका भयजनितदुःख जनकः, वर्णेन परमकृष्ण:-असौ तत्र नित्यं भीतः, नित्यं 'तसिए' त्रसितः परमाधर्मिभिखासं प्रापितः सन 'परमसुहसंबद्ध' परमाशुभसम्बद्धाम् =उत्कटपापकर्मोपनीतां 'नरगवेयण' नरकवेदनां= नरकसम्बधिघोरयातनां 'पञ्चणुभवमाणे' प्रत्यनुभवन् आत्मनः प्रतिप्रदेशतोऽनुभवन् 'विहरद' विहरनि= उपतिष्ठते । स खलु-विजयतस्करजीवः 'तो' तस्मात् नरकम्थानात् 'उवाहित्ता' उदवृत्य-निस्सृत्य 'अणाइयं' अनादिकम् आदि रहितम् 'अणवदग्गं' अनवदग्रम् = 'दीहमद्धं' दीर्धावानं दीर्धमार्ग चतुर्गतिलक्षणम्, दीर्घाद्धम्' इति च्छायापक्षे तु दीर्घा अद्धा कालः उत्सर्पिण्यवसर्पिणी लक्षणो यत्र तत दीर्धकालिमित्यर्थः 'चाउरतं संसारकंतारं' चातुरन्तं संसारकान्तारं-चातुरन्तं चतुर्गतिनिच्चं परममुहसंबद्धनरग) इन पदों का अर्थ इस प्रकार है---इसे वहां सदा भय रहेता है इसलिये सर्वदा इसे भयजनित रोमांच बना रहता है-यह नरक स्वयं भयंकर है-इसलिये भय से उत्पन्न होनेवाले दुःख का यह उत्पादक है। वर्ण की दृष्टि से यह परम कृष्ण है। यह वहीं नित्य भयशील और त्रस्त बना रहता है। परमाधार्मिक देव इसे वहाँ नित्य त्रास दिया करते है। उत्कृष्ट पाप कर्म के उदय से प्राप्त हुई नरक संबन्धी घोर यातनाओं को आत्माके प्रति प्रदेश से वह भोगता है (से ण ताओ उवहिना अणाइयं अणवदग्गं दीहमद्ध चाउरंतसंसारकतार अणुपरिअहिस्सइ) इसके बाद वह विजय तस्कर का जीव उस नरक स्थान से निकल कर अनादि--आदि रहित नाश रहित -अनन्त रूप ऐसी चतुर्गति रूप भवाटवी में जिसका कि चतुर्गति रूप निच्च भीए निच्च तत्थे, निच्च तसिए, निच परमसुहसंबद्धं नरगं) આ પદને અર્થ આ પ્રમાણે છે– તેને નરકમાં બીક રહે છે. એથી સદા તે ભયજનક રોમાંચ યુકત રહે છે. તે પોતે ભયથી ઉત્પન્ન દુઃખને તે ઉત્પન્ન કરનાર છે. રંગે તે સાવકાળે છે. હંમેશાં તે નરકમાં ભયશીલ અને સંત્રસ્ત બની રહે છે. પરમાધામિક દેવ તેને સદા ત્યાં નરકમાં ત્રાસ આપતા રહે છે. ઉત્કૃષ્ટ પાપકર્મોને લીધે પ્રાપ્ત થયેલી નરકની ભયંકર મુશ્કેલીઓને તે આત્માના દરેકે દરેક પ્રદેશથી लागवे छ. (से णं ताओ उवाहिता अणाइयं अणवदग्गं दीहमद्धं चाउरंतसंसारकंतारं अणुपरिअहिस्सइ) त्या२ मा विनय योरन ०१ ते न.४स्थानथा બહાર નીકળીને અનાદિ આદિરહિત નાશરહિત, અનંતરૂપ એવી ચતુર્ગતિરૂપ માર્ગ For Private and Personal Use Only
SR No.020352
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages762
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy