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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनगारधर्मामृतवर्षिणीटीका अ. २. धन्यस्य विजयेन सह हडिबन्धनादिकम् === For Private and Personal Use Only ६५७ काल कर वधैः ष्टयादिना ताडनरूपैः 'कसप्पहारेहिय' कशाप्रहारैश्च दिवसेऽनेकवार कशाघातरूपैः 'जाव' यावत् एवं लत्तादिपरिघातकरूपैश्च प्रहारैः तृष्णया चक्षुधयाच 'परभवमाणे' पराभवन्ः परिपीड्यमानो जर्जरितशरीरः सन् कालमासे = मृत्युसमये कालं कृत्वा 'नरएसु' नरके पापकर्मिणां यातनास्थाने 'सूत्रे प्राकृतत्वाद् बहुवचनम्' 'नेरइयत्ताए' नैरधिकतया नारकत्वेन 'उचवन्ने' उपपन्नः = उत्पन्नः । स खलु तत्र नरके नैरथिको जातः, कीदृश: ? इत्याह- 'काले' इत्यादि, 'काले' कालः = कृष्णवर्णः 'कालोभासे' कालावभासः = द्रष्टृणा काल इव= मृत्युरिव अवभासते यद्वा कालः = श्यामः अवभासः = दीप्तिर्यस्य स तथा 'जाव' यावत् यावच्छब्देन - 'गंभीर लोमहरिसे भीमे उत्तारणए परमकण्हे वण्णेण' से णं तत्थे निच्च भीए, य परभवमाणे कालमासे काल किच्चा नरएस नेरइयत्ताए उबवन्ने) उन पूर्व प्रदर्शित रज्वादि द्वारा दृढनियत्रणरूप बंधों से यष्ट्यादि द्वारा ताडन रूप बंधों से, दिवस में अनेक वार कृत कशाघातरूप प्रहारों से-- लत्तादि परिघात रूप प्रहारों से भूख और पिवास से परिपीडित होना हुआ - - जर्जरित - शरीर होता हुआ काल अवसर के और पान कन के यातना स्थानरूप नरक में नारकी की पर्याय से उत्पन्न हुआ । ( से णं तत्थ नेरइए जाए) वह वहां ऐसा नैरयिक हुआ कि जो (काले कालोभासे जात्र वेयणं पच्चणुमात्रमाणे fares) शरीर में कृष्ण वर्ण वाला देखने वालों को मृत्यु जैसा प्रती । होता था -- अथवा काली दीप्तिवाला । या यावत् शब्द से इस पाठ का यहां और संग्रह किया गया है । (गंभीर लोमहरिसे, भीमे, उत्तीणए परमकण्हे वण्णेण से तन्थ निच्च भीए, निच्च तत्थे, निच्च तसिए, परभवमाणे कालमासे काल किच्चा नरएसु नेरइयत्ताए उनबन्ने) पडेसां વર્ણન કરવામાં આવ્યા મુજબ દારીઓના સખત અંધને લાકડીઓ વગેરેના માર અને દિવસમાં ઘણીવાર કરવામા આવેલા કારડાઓના પ્રહારો, લત્તા વગેરેના પ્રહારો ભૂખ અતે તરસથી દુઃખી થતા શિથિળ શરીરવાળા થઈને આખરે મૃત્યુ પામ્યા અને પાપકર્માના યાતના સ્થાનરૂપ નરકમાં નારકીની પર્યાયમાં જનમ્યા. ( से णं तत्थ नेरइए जाए) नैरयिनी पर्यायां ते (काले कालोभासे जाव वेणं पच्चणुभवमाणे विहर) शरीरे मेऽहम अणाभेश देवो भने लेनाराय ते भृत्यु ?वो अथंड लागतो तो. अहीं ( यावत्) शण्डथी म थयो छ. - ( गंभीर लोमहरिसे भीमे उत्तासणए परमकण्हे चाहने संथड वणेणं से
SR No.020352
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages762
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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