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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ४५८ धर्मकथासूत्रे 'नवायए' नवायतः = नवहस्तप्रमाणाऽऽयोमः 'दसपरिणाहे' दशपरिणाहः दशहस्तप्रमाणो मध्यभागे इत्यर्थः 'सत्तंग पइट्टिए' सप्ताङ्गप्रतिष्ठितः, तत्र सप्ताङ्गानि चत्वारश्चरणाः, शुंडादण्डः, पुच्छो, जननेन्द्रियं च एतानि प्रति ष्ठितानि शुभानि यस्य स तथा 'सोमे' सौम्यः =भद्राकृतिः 'सुसंठिए' सुसंस्थितः = प्रशस्त संस्थानयुक्तः, तथा 'संमिए' सम्मितः = प्रमाणोपेताः 'सुरूवे' सुरूपः = शोभनशरीर: 'पुरओ' पुरतः अग्रतः अग्रभागे 'उदग्गे' उदग्रः उच्चः 'समूसियसिरे' समुच्छ्रितशिरस्कः उन्नतमस्तकः 'सुहासणे' शुभासनः शुभानि आसनानि= स्कंधादीनि यस्य सः 'पिटुओ वराहे' पृष्टतो वराहः पृष्ठतः पश्चाद्भागे वराह इव = सुकर इव पृष्ठमदेशे अवनतः, 'अइयाकुच्छी अजिकाकुक्षिः एव अजिका तद्वत्कुक्षिरुदरं यस्य सः उन्नतोदर इत्यर्थः, 'अच्छिद कुच्छी' अछिद्रकुक्षिः = छिद्रवर्जितोदरः मांसेन परिपुष्टत्वात् 'अलंब तुम्हारा शरीर था, नौ हाथ का तुम्हारा आयाम (लंचा) था, दश हाथ प्रमाण तुम मध्य भागमें थे, तुम्हारे सातों ही अंग सुप्रतिष्ठित थे- चारों चरण, सूंड, पूंछ, एवं जननेन्द्रिय ये सातों अंग बड़े अच्छे थे--तुम्हारी आकृति भद्र थी तुम्हारा संस्थान -- प्रशस्त था ( सुरूवे ) प्रमाण में जिस अंग की शरीर के अनुसार जैसी रचना होनी चाहिये वैसी ही रचना तुम्हारे प्रत्येक अंग की थी। इसलिये तुम्हारा शरीर बहुत ही सुडौल था । ( पुरओ उदग्गे) अग्र भाग तुम्हारा उन्नत था, ( समूसियसिरे ) मस्तक विशाल था, ( सुहासणे ) कंध आदि बठने के स्थान तुम्हारे बडे मनोहर थे, (fuge वराहे) वराह के जैसा तुम्हारा पृष्ट प्रदेश झुका हुआ था । ( अइया कुच्छी) अजा के उदर समान तुम्हारा उदर थाअर्थात् उन्नत था ( अच्छिदकुच्छी ) वह छिद्र से वर्जित धोપ્રમાણ જેટલું તમારું શરીર હતું. નવ હાથના તમારો આયામ (વિસ્તાર) હતો. તમારો મધ્યભાગ દશ હાથ જેટલા હતા. તમારા સાતે અંગ સુપ્રતિષ્ઠિત હતા. એટલે કે ચારે પગ, સુંઢ, પૂછ ું અને જનનેન્દ્રિય આ સાતે અંગે। બહુ જ સારાં હતાં. तभारी आहूति भद्र हुती. तमा३ संस्थान प्रशस्त हुतु. ( सुरूवे ) सप्रभाणु ने અગની રચના શરીર મુજખ જેવી હાવી જોઇએ, તેવીજ રચના તમારા દરેકે દરેક अंगनी हुती. भेटला भाटे तभाई शरीर हुन सुडोण इतुं ( पुरओ उदग्गे ) तभारो भागजनो लोग उन्नत हुतो. ( समूसियसिरे) भाथु विशाण हुतु. ( सुहासणं ) २६ वगेरे मेसवानी न्यायो महुन सरस हुती. ( पिटुओ वराहे) वराह (सूवर) नी नेभा तभारी पीडनो लाग नभेो हतो. ( अइया कुच्छी) जरीना पेट देवु तभा पेट तु--भेट ! उन्नत तु . ( अच्छिदकुच्छी) www Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only
SR No.020352
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages762
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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