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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनगारधर्मामृतवर्षिणीटीका अ१ म ३८ मेघकुमारदीक्षोत्सवनिरूपणम् ४४१ या उत्थाय-निद्रादि प्रमादत्यागपूर्वकम् उत्थानशक्तथा उत्थाय प्राणिषु द्वित्रि चतुरिन्द्रियलक्षणेषु 'भूएहि' भुतेषु वनस्पतिषु 'जी वेहि' पंचेन्द्रिय स्वरूपेषु 'सत्तेमु' पृथ्वव्यए तेजोवायुषु आपत्वात तृतीया 'संयमेण' संयमेन' मनोवाकाय विशुध्या सर्वथा विराधनोपरमेण 'संजमितव्वं' संयमितव्यम्. एवं रक्षण व्या. पारेण प्रवर्तितव्यं 'असि च णं अटे अम्मिश्च खल्वथ मोक्षप्राप्तिलक्षणे णो यमाएयवं' नो प्रमदितव्यम्-प्रमादो न कतव्यः सोत्साहं मततमुद्यमः कर्तव्य इत्यर्थः। ततः खलु स मेघकुमारः श्रमणम्य भगतो महावीरस्यान्ति के समीपे इममेतद्रूप धार्मिक श्रुतलक्षणं 'उबएसं' उपदेशं णिसम्म' निशम्य हृधधार्य ,सम्म पडिवज्जइ' सम्यक् प्रतिव्रजतिस्वीकरोति । 'तमाणाए' तमाशया का ही साधु को प्रयोग करना चाहिये । इस तरह निद्रादिप्रमादों के परित्याग पूर्वक उत्थानशक्ति से उठे कर द्विइन्द्रिय, त्रिइन्द्रिय और चतरि न्द्रिय प्राणियों में वनस्पतिरूप एकेन्द्रिय भूतों में पंचेन्द्रियरूप जीबों में, और पृथिवो. अप, तेज, एवं वायुरुपसस्त्रों में मन, वचन और काय की विशुद्ध से सर्वथा विराधना से उपरमित हो कर साधु को प्रवृत्ति करना चाहिये। (अम्सि च णं अद्र णो पमाएयत्वं तएणं से मेहे कुमारे समणस्म भगवओ महावीस्म अंतिए इमं एयारूवं धम्मियं उवएस णिसम्म सम्म पडिवज्जइ) मोक्ष प्राप्तिरूप इस अथ में साधु को कभी प्रमाद नहीं करना चाहिये। किन्तु सोत्साह सतन उद्यम ही करते रहना चाहिये । इस के बाद उन मेघकुमार ने श्रमण भगवान् महावीर के मुखारबिन्द से इस प्रकार का यह धार्मिक उपदेश सुनकर-अर्थात् श्रुतचारित्ररूपधर्म का व्याख्यान श्रवण कर और उसे अच्छी तरह से हृदय में अवधारित આ પ્રમાણે નિદ્રા વગેરે પ્રમાદેને ત્યજીને ઉત્થાન શક્તિ વડે ઊભા થઈને બે ઈન્દ્રિ ત્રણ ઇન્દ્રિયે અને ચાર ઈન્દ્રિયવાળા, પ્રાણીઓમાં વનસ્પતિ જેવા એક ઈન્દ્રિયવાળા भूतोमा पंथेन्द्रिय ३५ वामां अने पृथ्वी ५५, (पाणी) ते अने वायु ३५ સ, મા મન, વચન અને કાયાની વિશુદ્ધિથી, સર્વથા વિધિનાથી ઉપરમિત થઈને साधुये प्रवृत्ति ४२वी ने. (अस्सि च णं अटे णो पमाएयव, तएणं से मेहेकुमारे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए इम एयारूवं धम्पियं उवएसं णिसम्म सम्म पडिबज्जइ ) भाक्ष भवानी मतमा साधुने । પણ દિવસ પ્રમાદ (આળસ) નહિ કરવી જોઈએ, પણ સતત ઉત્સાહ રાખીને ઉદ્યમ કરતા જ રહેવું જોઈએ. ત્યાર બાદ મેઘકુમારે શ્રમણ ભગવાન મહાવીરના મુખારવિંદથી આ પ્રમાણે ધાર્મિક ઉપદેશ સાંભળીને એટલે કે મૃતચારિત્ર રૂપ ધર્મ દેશના સાંભળીને અને તે દેશના સારી પેઠે હદયમાં અવધારિત કરીને સ્વીકારી. For Private and Personal Use Only
SR No.020352
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages762
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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