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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनगारधर्मामृतवर्षिणीटीकास् ३.सुधम स्वामिनःचम्पानगर्यासमवसरणम् २५ नातिसमीपे उचितदेशे ‘उड्नाणू' उर्वजानुः-उर्वजानुनी यस्य स तथोक्त:उत्कुटुकासनोपविष्ट इत्यर्थः, 'महोसिरे' मनःशिरा-नोवं न तिर्यक्षिप्तदृष्टःकिन्तु नियतभूभागनियमितनयन इति भावः।प्राणकोटोवगए ध्यानकोष्ठोपगतः-ध्यायतेचिन्त्यते वस्त्वनेनेति ध्यानम् =एकस्मिन् वस्तूनि तदेकाग्रतया चित्तस्यावस्थापनम्, ध्यानं कोष्ठ इव ध्यानकोष्ठस्तमुपगतः। यथा कोष्ठगतं धान्यं विकीर्ण न भवति तथैव ध्यानगता इन्द्रियान्तःकरणहत्तयो-बहिर्न यान्तीति भावः, नियन्त्रितचिचवृतिमानित्यर्थः। संयमेन तपसाऽऽत्मनं भावयन वासयन् विहरति। ततः तदपनगौरः उग्रतपाः तप्ततपादीप्ततपाः उदारः घोरः घोरव्रतः संक्षिप्त विपुल. तेजोलेश्यः" इतने पाठ का ग्रहण हुआ है इन समस्त शब्दों का अर्थ मेरी लिखिहुइ औपपातिक सूत्र की पियूषवर्षिणी टीका में लिखा जा चुका है (अज्जसुहमस्स पेरम्स अदरसामंते उड्डजाणू अहोसिरे झाणकोहोवगए संजमेणं तवसा अप्पाणं भावे माणे विारह) श्री आर्यसुधर्मास्वामी स्थविर के पास न अधिक दूर और न अधिक समीप उर्ध्वजानु होकर बैठे हुए थे। उस समय उनका मस्तक नीचे की और मुका हुआ था। सूत्रकार इस पद द्वारा यह प्रदर्शित कर रहे हैं कि इस स्थिति में उनकी दृष्टि न ऊपर थी और न तिरछी किन्तु नियत भू भाग में नियमित थी। वे ध्यान रूपी कोष्ठ में ठहरे हुए थे-इस पद के रखने का यह अभिप्राय है-कि जिस प्रकार कोठे में रखा हुआ अनाज इधर उधर नही फैल (बिखर) सकता है उसी प्रकार ध्यानगत इन्द्रियों और अन्तःकरण की वृत्ति बाहिर की ओर नहीं फैलती है आत्मस्थ रहती हैं । तात्पर्य यह कि वे उस समय नियन्त्रित चित्तवृत्ति बाले थे। तप और संयम द्वारा आत्मनिरीक्षण करने की ये सदा भावना ना अर्थ भोपातिसूत्रनी Arviewवामा माया छ) (अजमुहमस्स थेरस्स अदरसामंते उहं जाणूअहोसिरे झाणकोहोवगए संजमेणं तवसा अप्पाणं भावे माणे विहरह) श्रीमाय सुघर्भास्वामी स्थविश्नी पासे न पधारे २ अनेन पधारे નજીક ઊર્ધ્વજાનુ થઈને બેઠા હતા. તે વખતે તેમનું માથું નીચેની તરફ નમેલું હતું. સૂત્રકાર આ પદ વડે એ બતાવી રહ્યા છે કે આ સ્થિતિમાં એમની નજર ન ઉપર હતી અને ન નીચી હતી પણ જે ભૂ ભાગમાં નિયતરૂપે હેવી જોઈએ. ત્યાં જ નિયમિત હતી. તેઓ ધ્યાનરૂપી કેષ્ઠમાં અવસ્થિત હતા, આ પદથી એ સ્પષ્ટ થાય છે કે જે પ્રમાણે કેડામાં મૂકેલું અનાજ આમતેમ વિખેરાઈ જતું નથી, તે જ રીતે ધ્યાનગત ઇન્દ્રિયો અને અન્તઃકરણની વૃત્તિ બહારની તરફ ફેલાતી નથી. આત્મસ્થ રહે છે. તાત્પર્ય એ છે કે તેઓ તે સમયે નિયંત્રિત ચિત્ત વૃત્તિવાળા હતા. તપ અને સંયમવડે આત્મનિરીક્ષણ કરવાની ભાવનાથી તેઓ હમેશને For Private and Personal Use Only
SR No.020352
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages762
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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