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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir % 3 A1 अनगारधामृत-पिटीका अ, १ म्. २६ मेघकुमारसा भगवशनादिनिरूपणम् ३२५ प्रत्यक्षादिप्रमाणैरबाधितं, एतत् प्रवचनमाराधयितुं वाञ्छितमित्यर्थः । 'पडिच्छियमेवंभंते' प्रतीष्टमेतद् हे भदन्त ! हे भगवन् ! एतन्निरतिचारमाराधयितुं वान्छितमित्यर्थः। 'इच्छियपडिच्छि यमेयं भंते ! इष्ट प्रतीष्टमेतद् भदन्त ! हे भगवन् ! घारपरिषहोपसर्गे संप्रप्तेशी निरतिचारमाराधयितुं सर्वथावाञ्छितमित्यर्थः। 'से जहेव तं तुम्भे बदह जं' अथ यथैव सद्यूयं बदथ यत् हे भग वन् ! यद् यूयं यथैव बदथ तत् तथैव, जीवाः यथा कर्मभिर्वध्यन्ते यथावामुच्यन्ते' इत्यादि यद् वदथ तत् तथैवास्ति। अथ मोक्षोपाय भूतां प्रत्रज्यां ग्रहीतुमिच्छामि, नवरं केवल हे देवानुप्रियाः! मातापितरौ आपृच्छामि, तभी पच्छा' ततः पश्चात् 'मुडे भवित्ता' मुण्डो भूत्वा खलु प्रव्रजिष्यामि । की बाधा नहीं पाती है। (इच्छियमेयं भंते) अतः मैंने आपके इस निर्ग्रन्थ प्रवचन की आराधना करने की पूर्ण वाञ्छा करलो है। (पडिच्छि. यमेयं भंते) मेरी इस इच्छा को कोई रोक नहीं सकता है अतः मैने इस निर्ग्रन्थ प्रवचन की आराधना अविचार रहित हो कर ही करने की भावना की है। (इच्छियपडिच्छियमेय भते) मैं इसकी पाराधना निमित्त चाहे जितने भी घोर परीपह उपसर्ग आवे तो भी उन्हें सहन करने को तैयार हूँ। (से जहेब त तुब्भे वदह जं) जिस प्रकार आप कहते हैं वह उसी प्रकार हैअर्थात जीव जिस तरह कर्मों से बन्धते हैं और जिस तरह वे उनसे मुक्त होते हैं यह व्यवस्था जैसी आपने निर्ग्रन्थ प्रवचन में प्रकट की है वह ठीक वैसी ही है। इसलिये अब मैं मोक्षोपायभूत प्रवज्या ग्रहण करना चाहता हूँ। (नवरं) परन्तु (देवाणुप्पिया) हे देवानुपिय ? (अम्मापियरोप्रमाणाधी मामi प तनो वांधा भावतो नथी. (इच्छिय मेयं भंते ) मेथी में पापना नि अवयननी साधना ४२वानी -छ। ४१ छ. (पडिच्छिय मेयं भंते ) भारी रिछाने ली शोभ नथी. मेटा भाटे में આ નિગ્રંથ પ્રવચનની આરાધના અવિચાર રહિત થઈને જ સંપૂર્ણપણે આરાધના ४२वानी भावना ४२ छ. (इच्छियपडिच्छियमेयं भंते ) मा माराधनामा गमे તેટલા ઘોર પરિષહ અને ઉપસર્ગ આવે તે પણ હું તેમને સહન કરવા માટે તૈયાર छु. ( से ज हेच तं तुब्भे वदह जं) म त है। छ। ते ते प्रभारी छએટલે કે જીવ જેમ કર્મોથી બંધાય છે, અને જેમ તેઓ કર્મોથી મુક્ત થાય છે, આની વ્યવસ્થા જેવી તમે નિગ્રંથ પ્રવચનમાં બતાવી છે, તે ઠીક છે. એટલે હું भाक्षना पाय भाटे प्रत्रया अाए। ४२१॥ न्याई छ. (नवर) ५४ (देवाणु. प्पिया) वानुप्रिय! ( अम्मा पियरो आपुच्छामि) मा विषे भा। भाता For Private and Personal Use Only
SR No.020352
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages762
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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