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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ६०४ ज्ञाताधर्मकथासत्रे भगवान महावीरः पूर्वानुपूर्व्या = तीर्थंकर परम्परया 'चरमाणे' चरन्, ग्रामानुग्रामं 'दुइज्जमाणे' द्रवन् सुखं सुखेन निराबाधसंयमयात्रानिर्वाहपूर्वकं विहरन् यत्रैव राजगृहं नगरं गुणशिलकं चैत्यम्-उद्यानं, तत्र यावद्यावच्छब्देनेद द्रष्टव्यं तत्र वनपालस्यात्ग्रहमादाय संयमेन तपसाऽऽत्मानं भावयन् बिहरति = आस्ते । ततः खलु 'से' इदमव्ययं पदं प्रस्तुतवस्तुनः परामर्शेऽर्थे वर्तते तेन 'से' इत्यस्य तस्मिन्नित्यर्थः, राजगृहे नगरे यत्र सिंघाडग० महयो बहुजण मद्देइ वा' शृङ्गाटकः महान् बहुजनशब्दः = शृङ्गाटकत्रिकचतुष्कचत्वर चतुर्मुख महापथ पथेषु महान् बहुजनशब्दः परस्पर भाषणादिरूपः 'इ' इत्यलंकारार्थः वा शब्दः समुच्चयार्थकः 'जाव' यावत् अत्र यावत्करणादिदं बोध्यम् - ? 'जणवूहेद वा' जनव्यूह: - जनसमूह: 'जणबोलेइवा: जनवोल :- जनानां परस्पर कथनरूपः (समणे भगवं महावीरे) श्रमण भगवान महावीर (पुव्वाणुपुवि चरमाणे) तीर्थकर की परंपरा के अनुसार विचरते हुए तथा (गामाणु गामं दूइ जमाणे) ग्राम से दूसरे ग्राम विचरते हुए (ससुहेणं विरमाणे) एवं सुख पूर्वक - विना किसी विघ्न वाधा के अपनी संयम यात्रा का निर्वाह करते हुए विहार कर (जेगा मेव रायगिहे णयरे) जहां राजगृह नगर था और ( सिलए चेइए) गुण शिलक चैत्य-उद्यान था उस में (जाव विहरइ ) तप और संयम से अपनी आत्मा को भावित करते हुए वनपालक की आज्ञा प्राप्त कर उतर गये । (नएणं रायगिहे णयरे सिंघाडगतिगच उक्कचच्चर चउम्मुह महापहप हेसु महया बहुजणसद्दे वा इसके बाद उस राजगृह नगर में श्रृंगाटक, त्रिक, चवर, चतुर्मुख, महापथ एवं पथ में बहुत बडा अनेक मनुष्यों का परस्पर भाषणादिरूप शब्द हुआ। 'जान' पदसे इस पाठ महावीरे) श्रमण भगवान महावीर (पुन्नाणुपुवि चरमाणे) तीर्थ पुरानी परंपराने अनुसरीने वियर रता तेभन (गामाणुगामं दूइजमाणे ) मे मीलगाम वियर उश्ता (सुहं सुहेगं विहरमाणे) मने सुमथी । पशु लतना विघ्न माधाय वगर पोतानी संयम यात्रा उरता उरता विहार उरीने (जेणामेव रायगिहे जयरे) यां रामगृहनगर तुं भने (गुग सिलए चेइए) गुणुशिस चैत्य इतु, तेमां ( जात्र विहरइ) वनपालउनी आज्ञा सधने वस्तीमां उतर्या अने તે તપ અને સંયમ દ્વારા પેાતાના આત્માને ભાવિત કરતા વિચરવા લાગ્યા. (तरण रायगियरे सिंघाडगतिगन उक्कनच्चरच उम्मुहमहापापहेतु मध्या बहुजणसदेई वा) त्यारमा गृह नगरमा श्रृंगार त्रि, यत्वर चतुर्भुज, મહાપથ અને પથમાં બહુજ મેટા પ્રમાણમાં અનેક માણુસેાના પરસ્પર વાતચીતના घोंघाट थयो. 'जाव' शहद्वारा स्मा चाहना स ंग्रह थयो छे - ( जणवू हे इवा) धा ગામથી Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only
SR No.020352
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages762
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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