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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २१० ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे तया समस्ता जाता ज्जलुज्ज लिये दंमणाभिरामे' दिव्यौषधिप्रज्वललितदर्शनाभिरामः, दिव्यौषधयः= ज्योतिर्वर्द्धक सोमलतादयः, तासां प्रज्वले नेत्र = प्रकाशेनेव मुकुटादि ज्योतिषा उज्वलितं=प्रकाशयुक्तं यद् दर्शनं तेनाभिरामः = सुन्दरः, तथा-'उउलच्छी समत्त जायसोहे' ऋतुलक्ष्मी समस्तजातशोभः = ऋतवः = वसन्तग्रीष्मवर्षाशरद् शिशिर हेमन्ताः, एतेषां या लक्ष्मीः-शोभा शोभादय सः, 'पट्टगंधुद्याभिरामः, प्रक्रष्टगन्धोड ताभिरामः तत्र प्रकृष्टगन्धेन= सुगन्धेन. उद्भतेन = सर्वतः प्रसृतेन, अभिरामे=मनोहरः, नगवरः=सकलपर्वतश्रेष्ठः मेरुरिव= मेरुगिरिरिव कुण्डल कु टादि सकलाभरणतेजसा दीप्यमानः समस्तशोभा-सम्पन्नः परमसुगन्धित शरीराभिराम इत्यर्थः । 'विउब्विय विधित्सवेसे' विकुर्तित विचित्रवेषः= वैक्रियशक्ताऽऽश्चर्यजनक रूपलावण्यादिसम्पन्नः, 'दोत्राणं' द्वीप समुआनन्ददायी था । (दिव्वोस हिपज्जलज्ज लियदंसणाभिरामे - उउलच्छी समत जायसोहे, पट्ठ गंधुजु गभिरामे) तथा दिव्य औषधिरूप सोमलता आदिकों के प्रकाश के तुल्य मुकुट आदि की कान्ति से यह विशेष प्रकाश युक्त था, अतः देखने में बडा सुन्दर लगता था । वसन्त ग्रीष्म, वर्षा शरद, शिशिर एवं हेमन्त इन छह ऋतुओं की समस्त शोभा जिस में है तथा सर्वतः प्रत सुगंध से जो अभिराम हैं ऐसे (नगवरे) पर्वतों में श्रेष्ठ (मेरुore) मेरु पर्वत के समान जो कुंडल, मुकुट आदि समस्त आभरणों के तेज से दीप्यमान, समस्त शोभा संपन्न एवं परम सुगंधित शरीर से अभिनेम था। ऐसा वह देव (विवि यत्रिचित्तवे से ) वैकिविक शक्ति से आश्चर्यजनक लावण्य आदि से संपन्न बना हुआ ( (दीरममुद्दाणं असंखपरम बनाम घेजाणं मज्झं कारणं बीइवयमाणे उज्यंते पभाए पजलुजलिन सणाभिरामे उउलच्छी समन्तासोटे इंड ग्राभिरामे) भने सोमलता वगैरे हिव्य सोधियोना अाशनी प्रेम मुकुट कोरेनी પ્રભાથી તે વિશેષ પ્રકાશમાન હતા, એથી દેખાવમાં પણ તે અત્યન્ત સરસ લાગતા हतो. वसन्त, ग्रीष्म, वर्षा, शरह, शिशिर भने हेमन्त या छमे छः ऋतुयोनी સમગ્ર શેમા જેમનામાં વિદ્યમાન છે, તેમજ સત્ર વ્યાપ્ત થયેલી સુગંધથી જે अभिराम है, सेवा (नगरे) पर्वत श्रेष्ठ (मेरुत्रिय) भेरुपर्वनी प्रेम ने डुडंग, મુકુટ વગેરે બધા આભરણેના પ્રકાશથી દીપ્તિમાન સમસ્ત શોભાયુકત અને પરમ सुग ंधित शरीरथी ने सुंदर हता. सेवा ते देव उत्रिय विचित्तवेसे) वैयि शक्तिथी नवाई चभाडे तेवा ३५ सावस्य युक्त यह गया हुता. (दोत्रसमुद्दाणं श्रसंख परिमाणनामधे जागं मज्झंकारेण वीड़वयमाणे उज्जोयंते पभाए विमलाए जीव T For Private and Personal Use Only
SR No.020352
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages762
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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