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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनगारधर्मामृतवषि टीका अ. १ सू. १५ अकालमेघदोहदनिरूपणम् २०९ जणियसोम्मरूवे' प्रेयोलमानवरललितकृण्डलोज्वलितवदनगुणजनितसौम्य रूपः, तत्र प्रयोलमानेदोलायमाने ये वरललितकुण्डले श्रेष्ट सुन्दरकुण्डले ताभ्याम् उज्वलितं प्रकाशमान वदनं मुखं तस्य यो गुणः कान्तिविशेषरूपः, तेन जनितं सजात सौम्यं शोभनरूपं यस्य सः। पुनरपि स सुरः शरच्चन्द्रेणो. पमीयते । 'उदिओविव कामुईनिसाए' उदित इव कौमुदीनिशायां-कार्तिकपर्णिमास्याम्, सगिच्छरंगारउज्वलियमज्झभागत्थे' शनैश्चराङ्गारो ज्यलितमध्यभागस्यः शनैश्वरमङ्गयोः उज्वलितः दीप्यमानः सन् यो मध्यभागे तिष्ठतोति सः, शनिमङ्गलयोर्मध्ये प्रकाशमानः, 'णयणाणंदे' नयनानंद: नत्रतृप्तिकरः, 'सरयचंदे' शरच्चन्द्रः शारदीय चन्द्र इव, तत्र कुण्डलद्वयमध्यगतं मुखमण्डलं शनैश्वर मङ्गलमध्यगतः कार्तिक पौर्णमास्यामुदितश्चन्द्रइव नयनाऽऽनन्दकारीत्यर्थः। साम्प्रतं मेरुणोपमीयते-'दिव्योसहिपमाणवरललि यकुंडलुजालपवणगुणमणियसोम्मख्वे) कानों में जो इसके कुडल थे वे श्रेष्ठ और अधिक सुन्दर थे। तथा हिलाते हुए नजर आ रहे थे। गादीला जैसे प्रनीत होते थे। इन दोनों से उनका मुखमं. डल प्रकाशमान था। इसलिये उसकी कान्ति विशेष से इसका रूप विशेष सौम्य हो गया था। (उदिओ कोमुई निसाए) अतः इसका मुखमंडल (कार्तिक की पूर्णिमा में उदित हुए तथा (सणिच्छरंगार उज्वलिय मज्झभागत्ये) शनैश्चर और मंगवग्रह के बीच में प्रकाशमान (णयणाणंदे) नैत्रतृप्ति कारक (सरयचंदे इव) शरत्कालीन चन्द्रमा के जैसा आनदकारी था। तात्पर्य इसका यह है कि जिस प्रकार शनैश्चर और मंगल ग्रह के मध्य में रहा हुआ कार्तिक पौर्णमासी का चन्द्रमा नयनानन्दकारी होता है उसी तरह दोनों कुंडलों के मध्य में रहा हुआ इसका मुखमंडल भी नेत्रों को सानमा भन थ६ २wो हतो. वोलमाणवरललियकुंडलुजलियवयण गुणजणियसोम्मरूवे) नाम पाडेरेसा हो श्रेष्ठ माने ५५ सरस छतो. ते ડેલતાં હતાં. એથી તે હીંચકા જેવા લાગતા હતા. તેનું મુખમંડળ બને કુંડળોથી દીપી ઉઠયું હતું. એનાથી વિશેષ કાન્તિવાળા દેવનું રૂપ વિશેષ સૌમ્ય લાગતું હતું. (उदिओ कोमुई निसाए) मेटा भाटे तेनु भुपम ति: पूणिमाना हिषसे Gध्य पामेला (सणिच्छरंगारउज्जलियमज्झभागत्थे) शनि भने म अडानी भध्ये प्रशता (सरयचदे इव) २२१४ादीन यंद्रनी भणयणाणदे] नेत्राने तृत આપનાર અને આનંદ પમાડનાર હતું. તાત્પર્ય એ છે કે જેમ શનિ અને મંગલ ગ્રહોની વચ્ચે કાર્તિક પૂર્ણિમાને ચંદ્રનયનેને આનંદ આપનાર હોય છે તેમજ બને दुकानी पश्ये २ तेन भुममा नेत्रोने मान साधना तु. (दिव्योसहि For Private and Personal Use Only
SR No.020352
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages762
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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