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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनगारधर्मामृतवर्षिणीटीका अ १ स १४ अकालमेघदोहदनिरूपणम् २०३ संगतियो देवो मम लधुमातुर्धारिण्या देव्या इममेतदूपम् 'अकालमेहेसु' अकालमेधेषु अकालमेघविषयकं दोहदं 'विणेहिइ' विनेष्यति पूरयिष्यतीत्यर्थः। एवं संप्रेक्षते-विचारयति, सं क्ष्य यत्रैव पौषधशाला तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य पौषधशाला प्रमार्जयति, प्रमाय, उच्चारप्रस्रवणभूमि पतिलेखयति, प्रतिः लेख्य दर्भसंस्तारकं प्रतिलेखयति, प्रतिलेख्य दर्भसंस्तारकं दुरूहई' रोहति= दर्भासनोपरि समुपविशतीत्यर्थः, दुरूह्य-समविश्य, अष्टमभक्तं प्रतिगृह्णाति, पतिगृह्य पौषधशालायां पौषधिकः ब्रह्मचारी यावत् पूर्वसंगतिकं देवं मनसि कुर्वन् २ मेहेसु डोहलं विणेहिइ) इस तरह पूर्व संगतिक देव मेरीछोटी माता धारीणीदेवी के इस अकाल मेघों में स्नान करने रूप दोहले की पूर्ति कर देगा। (एवं संपेहेइ) इस प्रकार अभयकुमारने विचार किया-(संपेहित्ता जेणेव पोसहसाला तेणामेव उवागच्छई उवागच्छित्तो पोसहसालं पमजई पमजित्ता उच्चारपासवणभूमिपडिलेहेइ) और विचार करके फिर वे जहां पौषध शाला थी वहां गये-जाकर उन्होंने पौषध शोला को साफ करके फिर उन्हों ने उच्चार और पासवणभूमि की प्रतिलेखना की अर्थात् लघुनीत और बड़ी नीत की भूमि की प्रतिलेखना की (पडिलेहित्ता दम्भ संथारगं दुरुहइ) प्रतिलेखना करके वे दर्भ संथारे पर बैठ गये (दहित्ता अनुमभनं पडिगिण्हइ) बैठ कर वहां उन्होंने अष्टमभक्त धारण कर लिया। (परिगिम्हित्ता पोसहसालाए पोमहिए बंभयारी जाव पुवसंगइयं देव मणसि. करेमाणेरचिट्ठइ) इस तरह अष्टमभक्त धारण कर वे अभयकुमारपौषधनती तथा ब्रह्मचारी आदि होकर उस पूर्व संगतिक देव का बार२ स्मरण देवे ममचुल्लमाउयाए धारिणीए देवीए अयमेयारूवं अकालमेहेसु डोहलं विणेहिह) २॥ शते पूर्व सतिष (पू नव भित्रव) भारा नाना (अ५२) भाता याशिणीदेवीनु २५णे भेधामा नावानु हो र ४२२. (एव संपेहेइ) मलयभार माम वियाथु (सं णे व पोपहसाला तेणामेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता पोसहसालं पमज्जइ पमज्जित्ता उच्चारपार्सवणभूमि पडिले हेइ) વિચાર કરીને તેઓ પિષધશાળામાં ગયા, ત્યાં જઈને તેઓએ પૌષધશાળાને સ્વચ્છ બનાવી. સ્વચ્છ બનાવીને પછી તેઓએ ઊંચાર અને પાસવણભૂમિની પ્રતિલેખન કરી એટલે ॐ धुया मने 40 \'ना:थानने युः (पडिलेहिता दम्भसंथारगं दुरुहइ) प्रतिवेगना शन मे हम सथा। ५२ मेसी या दुरुहिता अहमभत्तं पडिगिण्ड) मेसीन तेमाये मटमनात धारण यु! (परिगिहित्ता पोसहसालाएबंभयारो जाव पुनसंगइयं देवं मणसि करेमाणे २ चिट्ठइ) अष्टममत ધારણ કરીને અભયકુમાર પૌત્રી અને બ્રહ્મચારી વગેરે થઈને પૂર્વભવના મિત્ર For Private and Personal Use Only
SR No.020352
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages762
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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