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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनगारधर्मामृतवर्ष टीका. अ १. १५ अकालमेघदोहदनिरूपणम् २०१ • " रथसंपत्ति कर्त्तु, 'जन्नत्थ' नान्यत्र दिव्येन उपायेन, दिव्योपायेन विना मदीधुमातुर्धारिणी देव्या मनोरथसिद्धि र्न संभवतीत्यर्थः । अस्ति खलु मम सौधकल्पवासी 'पुव्वसगइए' पूर्वसंगतिः पूर्व= पूर्वकाले संगतिः- मित्रत्वं येन सह स पूर्वसंगतिकः देवः महर्षिकः विमानपरिवारादिसंपत्सहितः, जावमहासोक्खे' यावत्-महासौख्यः अत्र यावच्छ देनेदं द्रष्टव्यम्-महाद्युतिकः मदतीधुतिर्यस्य सः = शरीराभरणादि दीप्तिमानित्यर्थः महानुभागः = वैक्रियादिकरणशक्तियुक्तः, महायशाः = सत्कीर्तियुक्तः, महाबलः = पर्वताचुरपाटन सामर्थ्य वान महासौख्यः = विशिष्टसुखयुक्तः । 'तं' तत् = तस्मात् 'सेयं' श्रेयः खलु मम मम चुल्लमाउयाए धारिणीए देवीए अकालदोहलमणीरहसंपत्ति करि तए) माननीय उपाय से तो मेरी छोटी माता धारिणीदेवी की अकालोभूत मनोरथ संपत्ति की पूर्ति होना अशक्य है ( णन्नत्थ दिव्वेणं) एक दिव्य उपाय ही इसकी पूर्ति कर सकता है। जब ऐसी बात है तो ( अस्थि मज्झ सोहम्म कम्पवासी पुनसंगर देवे महिडिए जाव महासोक्खे) मेरा पूर्वभव का मित्र सौधर्म कल्पवासी देव हैं जो विमान परिवार आदि माहाऋद्धि सपन्न है। यहां यावत् पद से इस पाठ का संग्रह हुआ है - महाद्युतिकः महानुभागः महायशाः महाबलः महासौख्यः - इन पदों का अर्थ इस प्रकार है- शरीर आभरण आदि की दीप्ति जिसकी महान् है, बैक्रियादि करने की शक्ति से जो युक्त है, समीचीन कीर्ति से जो विशिष्ट है, पर्वत आदि जैसे महान् पदार्थों का भी जो जडमूक से उस्वाडने का सामर्थ्य रखता है विशिष्ट सुख से जो सदा सुखी रहता ता है। (तं सेयं खलु मम पोसहसालाए पोनहियस्स भयारिस्स उम्मुધારિણીદેવીના અકાળ દાડુની પૂતિ માનવીય શક્તિ દ્વારા થવી મુશ્કેલ છે. (ન્નत्यादिवेणं उवाएणं) इत हिव्य शक्ति ४ तेनी पूर्तिभां समर्थ है, तो वे (अस्थि मज्झसोहम्कप्पवासी पुत्र्यसंगर देवे महिडिए जात्र महासोक्खे) મારા પૂ॰ભવને મિત્ર સૌધ કલ્પવાસી દેવ છે. જે વિમાન વગેરેની મહાઋદ્ધિ સપન્ન છે. અહીં ‘ચાવત્' પદ્મ દ્વારા આ પાઠના સંગ્રહ થયા છે મહાવ્રુતિક; મહાનુભાગઃ, મહાયશા મહાબલઃ, મહાસૌષ્યઃ, અનુક્રમે આ બધાના અર્થ અહીં સ્પષ્ટ કરવામાં આવે છે-કે જેમની આભૂષણા અને શરીરની કાંતિ ખૂબજ સમુજવલ છે, વૈક્રિયાક્તિ કરવાની જે શકિત ધરાવે છે, જે સુયશસ્વી છે, પર્યંત વગેરે માટા પદાર્થોને પણ જે મૂળથી ઉપાડવામાં સમર્થ છે, અને જે અસાધારણ સુખી છે. તે ઉપર કહેલા चांचे विशेषणयुक्त उडेवाय छ. (तं सेयं खलु मम पोसहसालाए पोस हिस्स २६ For Private and Personal Use Only
SR No.020352
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages762
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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