SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 196
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १८४ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे =आ मवरुग्ण शरीरां यावद् आर्त्तध्यानोपगतां ध्यायन्तीं ध्यानं कुर्वतीं पश्यति । दृष्ट्वा एवं वक्ष्यमाणरीत्या, अत्रादीत् = बेणिकः पृष्ठवान् इत्यर्थः । कि= कस्मात् कारणात्, खल हे देवानुप्रिये! अवरुग्णा अवरुणशरीरा यावद् आर्त्तध्यानीपगता ध्यायसि ? । ततःखलु सा धारिणीदेवी श्रेणिकेन राज्ञा एवमुक्ता सती नो आद्रियते यावत् तूष्णिका संतिष्ठते । ततः खलु स श्रेणिको राजा धारिणींदेव द्वितीयवारमपि तृतीयवारमपि एवमवदत् किं खलु त्वं हे देवानुपये ! अवगा यावद् ध्यायसि । ततःखलु सा धारिणीदेवी श्रेणिकेन राज्ञा द्विती वारमपि तृतीयवारमपि एवमुक्ता सती नो द्रियते नो परिजानति, तूष्णीका संतिष्ठते । ततःखलु श्रेणिको राजा धारिणीं देवीं 'सहसावियं करेइ' शपथशापितां गये । (उवागच्छित्ता धारिणीं देवीं ओलुग्गं ओलुग्गसरीरं जाव अट्टझा णोवयं झियायमाणि पासइ) जाकर उसने धारिणी देवी को अवरुग्णा और अवरुग्ण शरीरा तथा आर्तध्यान में लीन हुई बैठी देखा (पासित्ता एवं वयासी) देख कर उससे उनने एसा कहा ( किन्नं तुमे देवानुप्पिए? ओलुग्गा ओलुग्गसरीरा जात्र अट्टझाणोब गया झियायसि ) देवानुमिये १ क्यों तुम अवरुग्णा तथा अवरुग्ण शरीरा हो और क्यों आर्तध्यान में मग्न बन रही हो । (तरणं सा धारिणीदेवी सेणिएणं रन्ना एवं बुत्ता समाoff at आढाई जाव तुसिणीया संचिट्ठा) इस तरह राजा श्रेणिक द्वारा पूछी गई उस धारिणी देवीने उन्हें कुछ भी उत्तर नहीं दिया और न उसे यही ज्ञात हो सका कि ये पूछने वाले कौन मेरे समक्ष खडे हुए हैं। केवल वह पूर्व की भांति चुपचाप ही बैठो रही । (तएण से सेणिए राया धारिणीं देवीं दोच्चपि तच्चपि एवं वयासी) रानीधारिणी देवी की ऐसी स्थिति देखकर श्रेणिक राजा से नहीं रहा गया और वे पुनः उससे दुवारा तिवारा द्वेवीनी पासे गया. ( उवागाच्छिता धारिणीं देवीं ओलुग्गं ओलुग्गसरीरं जात्र झाणोवयं झियायमाणि पासइ) त्यां न्हाने तेमोथे धारिणीदेवीने रुजु भने रुग्णु शरीरांनी नेभ यिन्ताभग्न लेयां. (पासिता एवं नयासी) तेमने लाने तेभले आ प्रभा छु (किन्नं तुमे देवानुप्पिए ! श्रलुग्गा ओलुग्गसरीरा जाव अट्टझाणोवगया झियायप्सि) हेवानुप्रिये ! शा भाटे तभे रोगनी नेभ रोज युक्त शरीरवाणा थाने चिन्तामन थर्म रह्या छी. (नए मा धारिणीदेवी सेणिएणं रन्ना एवंवुत्तासमाणी नो अढाई जाव तुमिणीया मंचिद्रह) मा रीते श्रेणि रान्नमे धारिणीदेवीने पूछयु पशु तेथे કઇ જવાબ આપ્યા ર્ડિ અને તેને આટલુ એ ભાન રહ્યું નહિ કે કાણુ સામે ઉભું છે અને તેને કઇક પૂછી રહ્યુ છે. ધારિણીદેવી તે વખતે પહેલાંની જેમ બેસી જ રહ્યાં. (नए से सेणिए राया धारिणीं देवीं दोच्चपि तच्चपि एवं क्यासी) शाशी नी भावी For Private and Personal Use Only
SR No.020352
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages762
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy