SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 195
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनगारधर्मामृतवर्षिणीटीका सू. १३ अकालमेघदोहदनिष्पणम् १८३ ञ्जलिं 'कट' कृत्वा, जयेन-जयशब्देन, विजयेन-विजयशन्देन 'बद्धार्वति' वध. यन्ति श्रेणिकमभिनन्दयन्ति, 'वद्धावित्ता' वयित्वा, एवमवदन्-एवं खलु हे सामिन् ! 'किंपि' किमपि अम्ति यद् 'अज' अध= अस्मिन् दिवसे धारिणी देवी अबरुग्गा अवरुग्णशरीरा यावद् आर्तध्यानोपगता ध्यायति-प्रार्तध्यानं करोति। ततः खलु स श्रेणिको राजा तासामङ्गपरिचारिकाणामन्तिके इममर्थ धारिणी देव्या-आध्यानरूपं श्रुत्वा निशम्य हृयवधार्य 'तहेव' तथैव, संभ्रान्तः सन् 'सिग्छ' शीघ्र=मनोगतिसहितं, 'तुरियं' त्वरितम् ='अधुनैव गम्यते इति वा व्यापार युक्तं, 'चवलं' चपलं कायचेष्टासहितं 'वेगिय' वेगितंगत्यबरोध रहितम्, यत्रैव धारिणी देवी तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य धारिणी दवीमवरुग्णा. दोनों हाथों को अंजलिबद्धकर ओर उन्हे मस्तक पर रखकर राजा को प्रणाम किया। याद में जय विजय शब्दों द्वारा उन्हें बधाई दी। (बद्धःवित्ता एवं वयामी) बधाई के बाद फिर उन्होंने राजा से ऐमा कहा-(एवं खलु मामी कि पि अज धारिणी देवी ओलुग्गा अोलुग्गसरीरा जाव अदृझाणोवाया मियापई) हे स्पामिन् ? आज हम आपके पास कुछ कहनेको आई हैं-धारिणीदेवी आज अवरुग्ण एवं अवरुग्ण शरीर वाली होकर अनमनी बैठी हुई हैं और आध्यान में मग्न हैं आदि२ (नएणं से सेणिए गया तानि अगपडियारियाणं अंतिर एयम मोच्चा णिसम्म तहेव संभले ममाणे सिग्धं तुरियं चवलं वे. जेणेव धारिणो देवी तेणेव उवागच्छद। श्रेणिक राजा उन अंधपरिचारिकाओं के मुग्य से इस बात को सुनकर और अच्छी तरह उसे अदा में प्राधारित कर उसो तरह सांभ्रान्न होकर शील ही अभी जाता हूं इस तरह वचन कहते हुए चपलरूप से बिना किसी रुकावट के जहां वह भारिणी देवी थी वहां जएणं विजएणं बद्धाति) छन तेसो भनि मस्तीन नमसर या. त्या न्यविश्य थी तभने यथाव्यi. (बदामिना ए बयासी) वधाच्या तयारी ने मधु (एक खल मामी किंपिअन धारिणीदेवी अोलगमा कोनगाहा जाव अझागोधगया झियायइ) वाभि! अमे आपने કંઇક નિવેદન કરવા માટે આવ્યાં છીએ. ધારિણીદેવી અવરુષ્ણુ અને કુશશરીરવાળી થઈને અન્યમનસ્કની જેમ બેઠાં છે, અને એકદમ ચિંતામગ્ન થઈને આર્તધ્યાન કરે છે. (तपास सेणिए राया नाभि अंग पडियारियागंअतिए एयमढे मोच्चा णिसम्मत हे व सभंते समाणे मिग्धं तुरिय चवलंबेइयं जेणेव धारिणी देवी तेणेव उवागच्छइ) અંગ પરિચારિકાઓના મઢથી આ વાત સાંભળતાં તે જ શ્રેણિક રાજાએ તે વાતને મનમાં સારી પેઠે ધારણ કરીને વ્યાકુળતાથી કંઈપણ સ્થાને શેકાયા વગર ધારિણી For Private and Personal Use Only
SR No.020352
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages762
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy