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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शाताधर्म कथाङ्गसूत्रे समूहेषु. 'वल्लीवियाणेसु' वल्लीवितानेषु-वृक्षगतलतादिषु पसरिएसु' प्रमृतेषु-जात विस्तारेषु'उन्नएसु' उन्नतेषु-उच्चेषु 'सौभाग्यमुवागएसु' सौभाग्यमुपागतेसु= सतत जलत्वेनाऽकर्दमत्वात्सौन्दर्य प्राप्तेषु=, नगेषु-पर्वतेषु 'नएसु' नदेषु अनेकनदोसंगमरूपेषु, यद्वा-हदेषु 'वेभारगिरिप्पवायतडकडगविमुक्कसु' वैभारगिरिप्रपाततटकटकविमुक्तेषु= वैभारे' ति नाम्नो गिरेः ये प्रपाततटाः गर्ततटाः, कटकाः उक्तपर्वतस्य एकभागाः, तेभ्यो ये विमुक्ताः प्रवृत्तास्तेषु 'उज्झरेसु' उज्झरेषु-पर्वतपतितजलप्रवाहेषु निझरेषु इत्यर्थः, 'झरना' इति भाषाया, 'तुरियपहावियपलोटफेणाउलं' त्वरितप्रधावितप्रत्यागतफेनाकुलम्, इदं जलविशेषणम्-त्वरितं शीधं प्रधावितेन=अधः पतितेन ‘पलोट्टे' ति प्रत्यागतेन पाषाणादौ संघटुं प्राप्य पुनरुत्पतितेन समुत्पन्नो यः फेनस्तेन-आकुलं व्याप्तम् अत एव सकलुपं मलिनं जलं वहन्तीषु, 'गिरिणईसु' गिग्निदीषु- पर्वतनदीषु सज्जज्जुणनीवकुडयकंदलसिलिंधकलिएसु' सर्जार्जुननीपकुटजकन्दलशिली. न्ध्रकलितेषु-सर्जार्जुननोपाकुटजनामकक्षाणां ये कन्दला: अराः शिली. न्ध्राश्च छत्रका भूमि स्फोटका मुंफोडा' इति भाषायां तैरेतैः कलितेषु-युक्तेषु गणेसु) पल्लवित पादपों के और (बल्लिवियाणेस) वल्लीवितानों के [पसरिएस विस्तृत होने पर (उन्नएस्सु सोभग्गमुवागएसु नगेसु नएसु वा) तथा उन्नत पर्वतों एवं नदों के निरन्तर जल की दृष्टि की वजह से किचड आदि रहित होने के कारण सुहावने लगने पर (वेभारगिरिप्पवायतडकडगविमुक्केसु) तथा वैभार पर्वत के गर्त तटों एवं उसके किसी एक भाग प्रवृत्त ऐसे (उज्झरेसु) निर्झरनों के होने पर तथा (तुरियपहावियपलोटफेणाउलसकलमं जल वहतोसु गिरिनदीसु) शीघ्र नीचे गिने से और बाद में ऊँचे उछलने से उत्पन्न हुए फेनो से आकुलित अत एव सकुलष ऐसे जलको बहाती हुई गिरिनदियों के होने पर (सज्जज्जुणनीवकुडय कंदलसिलिंघकलिएसु उबवणेसु) सर्ज, अर्जुन, नीप, कुटन नामक वृक्षो (पल्लवियपायवगणेसु) न्यारे पसदित वृक्ष माने (पलिल तिानेसु) सता। (पसरिएम) विस्तार पाभी, (उन्नएस्तु सोभग्गमुवागएमु नगेसु नएसु वा) જ્યારે ઊંચા પર્વતે તેમજ નદ સતત વર્ષાને લીધે કાદ વગર થઈને શોભિતથયા, (वेभारगिरिप्पवायतडाडगविमुक्के) त्यारे वैमा२ पतन ततटोमांथी (उज्झरेसु) अरणांयी सायां, तुरियपहावियपलोहफेणाउलसकलसं जलं वहतीसु गिरिनदीसु) पतनी नही areी नीचे पीन अये वाथी लाश द्वारा मालित भने उहायेसा पाणीने पावती 25, (सज्जज्जुणनीवकुडयद सिलिंघकलिएसु उववणेस) मायामा सई , मनुन, नीप, ४८०४ For Private and Personal Use Only
SR No.020352
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages762
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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