SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 100
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ८८ ज्ञाताधर्म कथासूत्रे तस्मिन् 'कपूर लवंग मलय चंदणकालागुरुपवरकुंदुरुतुरुक घडतसुरभि मघमत गंधु याभिरामे' कर्पूरलवङ्गमलयचन्दनकालागुरुप्रवरकुन्दुरुदकतुरक धूपदद्यमानसुरभिपसरद्गान्धो नाभिरामे=कर्पूर - लवङ्गानि च मलयचन्दनं= श्रीखण्डं च, कालागुरुः=कृष्णागुरुश्च, प्रवरकुन्दुरुष्कश्च = गन्धद्रव्य विशेषः, तुरुष्कश्च सिल्हकः 'लोवान' इति भाषायाम्, धूपश्च = गन्धद्रव्य संयोगजन्यः पदार्थः, एतेषामितरेतरयोगद्वन्द्वे - कर्पूरलयङ्गमलयचन्दनकालागुरुमवरकुन्दुरुष्कतुरुष्क धूपाः, तेच दह्यमानाः=अग्नौ प्रक्षिप्यमाणाः, तेषां सुरभिः = मनोज्ञः, स च प्रसरन्परितः प्रसर्पन् गन्धः उद्भूतः = उपरिगतः, तेन अभिरामं = मनोहरं तस्मिन्, 'सुगंधगंधि' सुगन्ध वरगन्धिते- नानाविधपुष्प सम्पादितगन्धद्रव्यैः सुवासिते । 'गंध भू' गन्धवर्तिभूते - गन्धद्रव्यगुटिकासदृशे = सौरभ्यातिशयाद् गन्धद्रव्यनिर्मितवद् भासमाने । मणिकिरणपणासियंधयारे' मणिकिरणप्रणाशितान्धकारे भास्करमणिप्रभया दूरीकृततिमिरे, 'किं बहुणा' किंबहुना=अधिकवर्णनेन किम् ?' जुइगुणेहिं' आनन्द का धाम बना हुआ है कि जहां पर बैठ कर चित्त को एकान्ततःसुख हो सुख मिलता है (कप्पूरलवंगमलय चंदणकालागुरुपवरकुंदुरुक्क तुरक्कधूवज्यं तसुरभिमघमघंतगंधुद्याभिरामे ) यहाँ का समग्र वायु मंडल सदा अग्नि में जलाये गये कपूर, लवंग, मलय चंदन, कालागुरु प्रवरकुन्दुरुष्क - गन्ध द्रव्य विशेष, तुरुष्क - लोवान तथा धूप, इनसे तर रहा करता है। (सुगंध वरगंधिए) अत एव यह शयनागार ऐसा प्रतीत होता है कि मानों नानाविध पुष्पों से संपादित किये गये गंध द्रव्यों से ही सुवासित हो रहा है । और इसलिये यह (गंधवट्टिए) गंध द्रव्य की गोली जैसा बना हुआ जान पडता है । (मणिकिरण पणा सिधयारे) अंधकार वहां बिलकुल नहीं हैं - कारण वह नाना विध मणियों की किरणों से सदा प्रकाशित बना हुआ है ( किं बहुना) इसके विषय में अधिक Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir थाय छे. આનંદનું સ્થળમય લાગતું હતું કે, જ્યાં બેસવાથી મનને પરમ સુખની જ પ્રાપ્તિ (कपूर लवंगमलगचंद णकालागुरुपवर कुंदुरुक्कतु कधूचडज्तसुरभिमघमघंत गंधु याभिरामे) सहनु वायुभउज हमेशा माणवामां आवे यूर सविंग, भाय यांन, अद्यागुरु, अवर डुन्डुरुण्ड (ङ गन्ध द्रव्य विशेष) तुरुङ, सोमान भने धूपथी सुगंधित रहेतु तु. ( सुगंध वरगंधिए) साथी या शयनाગાર અનેક જાતના પુષ્પો અને સુવાસિત દ્રવ્યો વડે સુગ ંધિત થયેલું જણાતુ હતુ અને એથી જ આ શયનગૃહ સુગ ંધિત પદાર્થની ગોળીના જેવું લાગતુ ३. (मणिकिरणपणा सिधयारे) त्यां तद्दन अधाई नथी, अरगुडे ते अने नतना भणिमोना प्राशवडे हमेशां प्राशमान ४ जनेषु छे. (किं बहुना) भेना For Private and Personal Use Only
SR No.020352
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages762
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy