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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उसकावेचना और शस्त्रादिकको वेचना (विषवाणिज्य) (१०) द्विपदचतुस्पदादिकावेचना (केशवाणिज्य) (११) तिल सेलडी वगेरहका कोहचलवाना (यंत्रकर्म) (१२) वृषभादिकको अंगहीनकरना वृषणच्छेद करना कान६ वगेरहकाटना (निर्लान्छनकर्म ) (१३) क्षेत्रवगेरहमें अग्नि लगाना या जंगलजलादेना ( दवदानकर्म ) (१४)। है गहुवंगरेहबोहने के लिये सरोवर आदिका सुकाना (सरदहतालावसोपनियाकर्म) (१५) कुशीलिये दास दासियोंको पोषके भाडालेके आजीविकाकरना ( असतीपोपनकर्म ) ये १५ कर्मादान के अतिचार कहे. | अब ज्ञानके ८ अतिचारकहतेहै जैसे अकालवेलामें अथवा मनाकियेहुएदिनोंमें श्रुतका अध्ययनकरना १ गुरु और ज्ञानकाउपकरण और पुस्तकादिकों के पाँवआदिकासंघटाकरके अविनयकरना २ तथा इन्होंका बहुमान 5 नहिकरना ३ उपधान योगादिविना श्रुतअध्ययनकरना ४ जिसके पासमें श्रुत अध्ययन (सूत्रपढा होवे ) है कीया उसको गुरु नहि कहना ५ देववंदन प्रतिक्रमणादिकमें अशुद्धअक्षरोंका पढना ६ वहाँहि अशुद्ध अर्थका पढना ७ देववंदनादिक में सूत्रअर्थका अशुद्धपढना ८ ये ज्ञानके ८ अतिचारकहे, अब दर्शनके ८ अतिचारकहतेहैं| ६ जैसे देवगुरू धर्मकेविषयमें आशंकाकरना १ सर्वमतअच्छे हैं ऐसाविचारकरना २ धर्मकेफलमें संदेहकरना ३ मिथ्यादृष्टियों का महत्वदेखके उसपरतीवरागकरना ४ साध्वादिकों के गुणोंकी प्रशंसा नहि करना ५ नयेप्रतिबोधे । ROSSISTESSORIES For Private and Personal Use Only
SR No.020325
Book TitleDwadash Parv Vyakhtyana Bhashantaram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinduttsuri Gyanbhandar
PublisherJinduttsuri Gyanbhandar
Publication Year1926
Total Pages180
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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