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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra दीवा० व्याख्या० ॥ ८० ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir | मैला मुख जिसका ऐसी मित्रश्रीके ऊपर द्वेष धारती भई अपने घर गई शौक के साथ पतिसम्बन्ध वियोगचाहती भई कनकश्री विषयप्रमाद व्याकुल भई मंत्र तंत्र यंत्र कामणादि सामग्री करके उसके शरीर में भूतप्रेत शाकिनी डाकिनीका प्रवेश करादिया मित्र श्रीभी कर्मके योगसे परवश भई बाद कनकश्री शौकको कुचेष्टा करतीभई जानके हर्षित भई और अपने भर्तारको स्वाधीन किया सेठभी छोटी स्त्रीको वैसी देखकर पूर्वकर्मका फलविचारके त्याग | किया । तब कनकश्री हर्षित भई धनावह सेठ कनकश्री के साथ विशयसुखभोगवता भया रहा कितना काल जानेसे कनकश्री मरी तेरी पुत्री भई शौकका पतिके साथ वियोगकरनेसे विषकन्या कर्मका फल पतिविरहसे पीडित होना भोग सुखरहित ऐसा कर्म उपार्जन किया उस कारण से यह तेरी पुत्री महा दुःखों से दुःखित है कर्मोंकी विचित्र गति है तब उसकी माता और बोली हे प्रभो यह कन्या पतिविरहसे पीडित फांसीखाके मरतीथी मैंने देखके छुडाई आपके पास में लाई हूं आप कृपाकरके दीक्षा देवो तब गणधर वोले हे भद्रे यह तेरी पुत्री दीक्षा के योग्य | नहीं है बहुत चंचलखभाववाली है ऐसा गुरूका वचन सुनके उसकी माता बोली इसके योग्य धर्मकृत्य फरमाओ | उससे दुष्टकर्मका विपाक दूर होवे तब गुरु ज्ञानके बलसे उसके योग्य व्रत कहते भये हे भद्रे चैत्रशुक्लपौर्णिमाका | आराधन करो उसके आराधनेसे इसके पूर्व कर्मका नाश होगा ऐसा सुनके उस कन्या की भी गुरूके प्रभाव से रुचि - भई तब सावधान होके गुरुकी वाणी सुनी तब गणधर बोले श्रीसिद्धाचलतीर्थ शाश्वता है अनंतानंतकाल में अनंते For Private and Personal Use Only चैत्रीपौर्णिमाका व्याख्यान. ॥ ८० ॥
SR No.020325
Book TitleDwadash Parv Vyakhtyana Bhashantaram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinduttsuri Gyanbhandar
PublisherJinduttsuri Gyanbhandar
Publication Year1926
Total Pages180
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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