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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyarmandir दीवा० 18वाद जन्मांतरमें चांडाल वुक्कस होवे बाद कीड़ा पतंगिया कुंथुआ और कीड़ी होवे ॥६॥ शुभग, दुर्भग, पौषव्याख्या श्रीमान् , निर्धन, रूपवान. कुरूप वोही सेवक होवे कभीखामी होवे कभी मनुष्य कभीस्त्री कभीनपुंसक होवे ॥७॥ दशमीका संसारीजीव कर्मसम्बन्धसे नटके जैसा संसारमें अनंतकालतक परिभ्रमण अर्थात् नाटक करताहै ॥ ८॥ दया, व्याख्यान. ॥६८॥ दानधर्मरूप कल्पवृक्षकी दानशील तपभाव चारशाखाहै भव्यजीवको मोक्षके सुखरूप फल प्राप्त होवेहै ॥९॥ धर्मसेही सुकुलमें जन्म होताहै धर्मसे विपुलयश होताहै धर्मसे धनसुखरूप होवेहै ॥धर्म खर्गअपवर्गका देनेवालाहै१० दोहा-धर्म करत संसारसुख धर्म करत निर्वाण । धर्मपन्थ साधनविना, नरतिर्यंचसमान ॥ १॥ सुपुरुष तीन पदार्थ साधेहै, धर्मविशेषजानी आराधेहै ॥ धर्म प्रधानकहे सबकोई, अर्थ काम धर्महितहोई ॥२॥ इत्यादि धर्मकथा सुनके सेठ जीव अजीवादि नवपदार्थ युक्तः सम्यक्त्वरत्नपाया ॥ और प्रश्नकिया हे भगवन् ॥६८॥ ऐसा कोई तपकहो जिसके करनेसे मेरा निधान नष्ट होगया सो प्रगटहोवे ॥ आचार्यबोले हे भद्र धर्मसेवनेसे सर्व इष्टसिद्धिः होवेह पौषवदीदशमीका व्रतकरना उसदिनभी पार्श्वनाथखामीका जन्मकल्याणक भयाहै ॥ नवमी, For Private and Personal Use Only
SR No.020325
Book TitleDwadash Parv Vyakhtyana Bhashantaram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinduttsuri Gyanbhandar
PublisherJinduttsuri Gyanbhandar
Publication Year1926
Total Pages180
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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