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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir एगया देवलोएसु, नरपसु वि एगया । एगया असुरं कायं जहा कम्मेहिं गच्छइ ॥ ५ ॥ एगया खत्तिओ होइ, तओ चण्डाल वुक्कसो॥ तओ कीड पयंगोय, तओ कुन्थु पिपीलिया ॥ ६ ॥ सुभगो दुर्भगः श्रीमान् रूपवान् रूपवर्जितः ॥ स एव सेवकः स्वामी नरो नारी नपुंसकः ॥७॥ संसारीकर्मबन्धाद्, नटवत् परिभ्राम्यति । अनन्तकालपर्यन्तं, जीवः संसारवर्त्मनि ॥ ८ ॥ भव्यजीवे दयादानं धर्मकल्पतरूपमम् । दानशीलतपोभावं, शाखा मुक्तिसुखं फलम् ॥ ९ ॥ धर्मादेव कुले जन्म, धर्मादि विपुलं यशः ॥ धर्माद् धनं सुखं रूपं, धर्मः स्वर्गापवर्गदः ॥ १० ॥ अर्थः ॥ ज्ञान दर्शन चारित्र तप तैसे वीर्य और उपयोग यह जीवका लक्षण है ॥ १ ॥ पंडितोंने सामान्य प्रका| रसे चेतना लक्षण आत्माका कहा है || एक संसारात्मा और परमात्मा दो प्रकारका आत्मा जानो ॥२॥ संसारी आत्मा निरंतर दुःखी जन्ममरण शोकभाक है ॥ ८४ चौरासी लाख योनियों में परिभ्रमण करेहै ॥ ३ ॥ वैसी कोई जातिनहीं वैसी कोई योनिः नहीं वैसा कोई क्षेत्रनहीं वैसा कोई कुलनहीं जहां कर्मके वशसे संसारी | आत्मा अनेक वक्त जन्म मरण नहीं किया है । अपितु किया है ॥ ४ ॥ कोई वक्त देवलोक में उत्पन्न होता है कभी नर्क में जाता है कभी असुर योनिः पाता है जैसे कर्म करै वैसा गत्यन्तरमें जावे ॥ ५ ॥ कभी क्षत्रिय होवे For Private and Personal Use Only
SR No.020325
Book TitleDwadash Parv Vyakhtyana Bhashantaram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinduttsuri Gyanbhandar
PublisherJinduttsuri Gyanbhandar
Publication Year1926
Total Pages180
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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