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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २५१ ] ये पापकारिणो नराः पापं असत् परूपणं कुर्वन्तीत्येवं शीलाः पापकारिणो ये नराः भवन्ति ते नराः घोरे भीषणे ( भयङ्करे ) मरके पतन्ति च पुनः धर्म सत् परुपणरूपं चरित्राराध्यदिव्यं दिवः सम्बन्धीनी उत्तमां गतिं गच्छन्ति इत्यादि ॥ इस पाठमें उत्सूत्र परूपणा करने वालेको भयङ्कर नरक और सत्य परूपणा करने वालेकों देव लोगकी गति कही हैं । और श्रीशान्तिमूरिजीकृत श्रीधर्मरत्नप्रकरण मूल तथा तवृत्ति श्रीदेवेन्द्रसरिजी कृत भाषा सहित श्री पालीताणासें श्रीजैनधर्म विद्याप्रसारकवर्गकी तरफसे छपके प्रसिद्ध हुवा हैं जिसके तीसरे भागके पृष्ठ ८२। ३। ८४ का पाठ गुजराती भाषा सहित नीचे मुजब जानो ;यथा-अइ साहस मेयं जं, उस्मुत्त-परूवणा कडुविधागा ॥ जाणंतेहिवि दिनइ, निद्दे सो मुत्तबज्झत्थे ॥१०॥ मूलनो अर्थ-उत्सूत्रपरूपणा कडवां फल आपनारी के एवं जाणतांछतां पण जेओ सूत्रबाह्य अर्थमां निश्चयापी देछे ते अति साहसछे ॥ ११ ॥ टीका-ज्वलज्ज्वालानल प्रवेशकारिनर साहसादप्यधिकमतिसाहसमेतद्वर्तते यदुत्सत्रपरूपणा सत्रनिरपेक्ष देशना कटुविपाका दारुणफला जानानैरवबुध्यमानैरपि दीयते वि. तीर्य्यते निर्देश्यो निश्चयः सूत्रबाटै जिनेन्द्रागमानुक्ताथै वस्तु विचारे किमुक्तं भवति दुभासिएण इक्केण, मरीईदुक्खसागरं पत्तो। भमिओ कोडाकोडिं, सागरसिरिनामधिज्जाणं ॥१॥ उस्मुत्तमा चरन्तो-बंधइकम्म सुचिकणं जीवो । संसारञ्च पवढाइ, मायामोसं च कुवइय ॥ २॥ उम्मग्गदेपओमग्ग-मास For Private And Personal
SR No.020134
Book TitleBruhat Paryushananirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar Maharaj
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages585
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size10 MB
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