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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २५० ] वहत्तिमें २० तथा प्रथम लघु वृत्तिमें २१ और दूसरी लघु वृत्तिमें २२ श्रीविशेषावश्यकमें २३ तथा तवृत्तिमें २४ श्रीसाधप्रतिक्रमणसत्रकी वृत्तिमें २५ श्रीमूलशुद्धिप्रकरणमें २६ श्रीमहानिशीथ सत्रमें २७ श्रीधर्मरत्नप्रकरणमें २८ तथा तद्वृत्ति २९ श्रीसङ्घपट्टक वृहद्वत्तिमें ३० श्रीश्राद्धविधि वृत्तिमें ३१ श्रीआगम अष्टोत्तरीमै ३२ तथा तत्तिमें ३३ श्रीसन्देहदोलावलीवृत्तिमें ३४ श्रीसम्बोधसत्तरीमें ३५ तथा तत्तिमें ३६ श्रीवैराग्यकल्पलतामें ३१ श्रोत्रिषष्ठिशलाकापुरुष चरित्रमें ३८ और श्रीकल्पसूत्रकी सात व्याख्यायोंमें ४५ इत्यादि अनेक शास्त्रों में और भाषाके स्तवन, पद, ढाल वगैरहमें भी अनेक जगह लिखा है कि शास्त्र पाठ तथा एकाक्षरमात्रभी प्रमाण नहीं करनेवाला निन्हव उत्सूत्र भाषककों श्रीतीर्थङ्कर गणधर पूर्वधरादि पूर्वाचार्य परम गुरुजन महाराजोंकी आशातना करने वाला और उन्हीं महाराजोंके वाक्यकों न मानता हुवा उत्थापन करने वाला बहुलकर्मी, माया सहित मिथ्या भाषण करने वाला, संयमसे भ्रष्ट, घोर नरक में गिरने वाला, चतुरगतिस्प संसारमें कटुक विपाक दारुण ( भयङ्कर ) फलको भोगने वाला, सम्यगदर्शमसें भ्रष्ट, मिथ्यात्वी, दुर्लभबोधि, अनन्त संसारी, मोहन्यादि आठ कोंके चीकणे बन्धको बाँधने वाला, पापकारी इत्यादि अनेक विशेषण शाखोंमें कहे हैं जिसके सब पाठ इस जगह लिखने से बहुत विस्तार हो जावे तथापि भव्यजीवोंको निःसन्देह होनेके लिये थोडेसे पाठ भी लिख दिखाता हुं ; श्रीलक्ष्मीवल्लभगणिजी कत श्रीउत्तराध्ययनवृत्तौ अष्टादशाध्ययने-संयतराजर्षि क्षत्रियमुनिर्वदति हे महामुने For Private And Personal
SR No.020134
Book TitleBruhat Paryushananirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar Maharaj
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages585
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size10 MB
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