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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ १०७] विरुद्ध प्रथम इरियावही पीछे करेमिभंतेकी शास्त्र विरुद्ध और पूर्वाचार्योंकी आशाबाहिर कल्पितबातकोछोडदेना यही जिनाशाके आरा. धकभवभिरु निकटभव्य आत्मार्थियों कोउचितहै. ज्यादे क्या लिखें. ३९-कितनेकलोग शंका करते हैं, कि-पौषध,प्रतिक्रमण,स्वाध्याय, ध्यानादि कार्यों में पहिले इरियावही करनेका कहा है, और सामायिकमें प्रथम करेमिभंतेका उच्चारण किये बाद पछिसे इरियावही कर नेका कहा है, उसका क्या कारण होना चाहिये ? इसका समाधान यह है कि-पौषध-प्रतिक्रमणादिक कार्य तो आत्माको निर्मलकरनेके हेतुभूत क्रियारूप हैं सो मनकी स्थिरतासे होसकते हैं, इसलिये मनकी स्थिरताकरनेकेलिये गमनागमनकी आलोचनारूप इरियावहीकर के पीछे इनकार्यों में प्रवृत्ति करें तो शांततापूर्वक उपयोग शुद्धरहताहै, इसलिये इनकार्यों में पहिले इरियावही करनेका कहा है. मगर सामाः यिकको तो श्रीभगवती-आवश्यकादि आगमोंमें " आया खलु सा. माइअं" इत्यादि पाठीसे सामायिकको खास आत्मा कहाहै, इसलिये आत्माकीस्थापनाकरनेकेलिये और आत्माके साथ कर्मबंधन केहेतुरूप आते हुए आश्रयको रोकने के लिये प्रथम करेमिभंतेका पच्चख्खाण करनेका कहा है. पहिले आत्माकी स्थापनारूप और आश्रवनिरोधरूप सामायिकका उच्चारण होगया, तो, उसके बादमें पीछे आत्माको निमल करने के लिये स्वाध्याय ध्यानादि कार्य करने के लिये इरियावही करनेकीआवश्यकताहुई. इसलिये पीछेसे इरियावहीपूर्वक स्वाध्याय, ध्यानादिधर्मकार्यकरनेचाहिये,और आत्माकी स्थापनारूप व आश्रव निरोधरूप जबतक सामायिक पच्चख्खाण न होंगे, तब तक एक. वार तो क्या मगर हजारवार इरियावही करतेही रहेंगे तो भी आ. श्रवनिरोध बिना निजात्म गुण की प्राप्ति कभी नहीं होसकेगी, इस. लिये सर्वशास्त्रोंकी आशामुजब पहिले आत्माकी स्थापनारूप सामायिकके पच्चखाण करके पीछेसे आत्माकी शुद्धिके लिये इरियावही पूर्वक स्वाध्यायादि धर्मकार्य करने चाहिये. इस प्रकार सामायि. कमें प्रथम करेमिभंते कहने संबंधी शास्त्रकारोंके गंभीर आशयको स. मझे बिना पौषधादि कार्यों की तरह सामायिकमेभी प्रथम करेमिभंते का उच्चारण किये पहिलेसेही इरियावही स्थापन करनेका आग्रह करना आत्मार्थियोंको योग्य नहीं है। ४०- कितनेकमहाशय कहतेहैं,कि-श्रीनवकारमंत्रके पीछे इरिया For Private And Personal
SR No.020134
Book TitleBruhat Paryushananirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar Maharaj
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages585
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size10 MB
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