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________________ Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org [१०६ ] मझे बिना अधूरी विधिके नामसे सामायिक प्रथम करेमिभंते और पीछे इरियावही करनेकी सत्यबातको सर्वथा उडादेना सो उत्सूत्रप्र. रूपणारूप होनेसे आत्मार्थियोको योग्य नहीं है. ३८-देखो विवेकबुद्धिसे खूब विचारकरो- श्रीजिनदासगणिमहत्तराचार्यजी पूर्वधर,श्रीहरिभद्रसूरिजी,अभयदेवसूरिजी,देवगुप्तसूरि जी,हेमचंद्राचार्यजी, देवेंद्रसूरिजी,आदिगीतार्थ शासन प्रभावक महाराजीको तो सामायिकम प्रथमकरेमिभंते पीछे इरियावहीकी बात तत्त्व ज्ञानसे जिनाज्ञानुसार सत्यमालूमपडी, इसलिये अपनेर बनाये ग्रंथों में निसंदेहपूर्वक लिखगये तथा आत्मार्थी भव्यजीवभी शंकारहित सत्य बात समझकर उस मुजब सामायिककी सब विधिभी करतेथे और अभी करतेभी हैं। जिसपरभी कितनेक लोग अपने तपगच्छ नायक श्री देवेंद्रसूरिजी महाराज वगैरह पूर्वाचार्योंकेभी विरुद्ध होकर इस बातमें सर्वथा विपरीत रीतिसे प्रथमइरियावही पीछेकरेमिभते स्थापन करके जिनाज्ञाके आराधक बनना चाहते हैं और प्रथम करेमिभंते पीछेइरियावहीकोशास्त्रविरुद्ध ठहराकरनिषेधकरतेहैं.अब विचारकरना चाहिये, कि- प्रथमकरेमिभंते पीछेइरियावही स्थापनकरनेवाले जिनाज्ञाके आराधक ठहरतेहैं, या प्रथम इरियावही पीछे करेमि भंते स्थापन करनेवाले जिनाज्ञाके आराधक ठहरतेहैं, यदि-प्रथम इरिया वही पीछे करेमिभंते स्थापन करनेवाले जिनाज्ञाके आराधक बनेंगे, तो प्रथम करेमि भंते पीछे इरियावही स्थापन करने वाले प्राचीन सर्व पूर्वाचार्य जिनाशाविरुद्ध मिथ्यात्वकी खोटी प्ररूपणा करनेवाले ठहरेंगे. और यदि प्राचीन सर्व पूर्वाचार्य प्रथम करेमि भंते पीछे इ. रियावही स्थापन करनेवाले जिनाज्ञाके आराधक सत्यप्ररूपणा कर. ने वाले मानोगे, तो, उन सर्व पूर्वाचार्योंके विरुद्ध होकर प्रथम इरियावही पीछे करेमिभंते स्थापन करनेवाले जिनाज्ञा विरुद्ध मिथ्यात्वकी खोटी प्ररूपणा करनेवाले ठहर जावेगे. तथा इस बात पाठांतरभी न होनेसे पूर्वापर विरोधी दोनों बातेभी कभी सत्य ठहर सकतीनहीं. और प्राचीन सर्व गीतार्थ पूर्वीचार्योंकोभी खोटी प्ररूपणा करनेवालेभी कभी ठहरासकतेनहीं. मगर उन्हीं गीतार्थ महाराजकि विरुद्ध आग्रह करनेवालेही खोटी प्ररूपणा करनेवाले ठहरते हैं, इस. लिये सर्व गीतार्थ पूर्वाचार्यों को जिनाशाके आराधक सत्य प्ररूपणा करनेवाले समझ करके उन सर्व महाराजोंकी आज्ञा मुजब सामायिक प्रथम करेमि भंते पीछे इरीयावही मान्य करना और इनके For Private And Personal
SR No.020134
Book TitleBruhat Paryushananirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar Maharaj
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages585
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size10 MB
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