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________________ Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org [ १०८] वहीके उपधानकहेहैं,मगर इरियावहाँके पहिले करेमिभंतकेउपधान नहींकहेहैं,इसलिये सामायिकमेभी पहिले इरियावही करना योग्यहै। ऐसा कहनेवालोंको सामायिकके स्वरूप संबंधी शास्त्रकारमहाराजों के अभिप्रायको समझमें नहीं आया मालूम होताहै। क्योंकि देखियेशास्त्रों में सामायिकको आत्मा कहा है, और इरियावही वगैरह क्रि. यारूपसूत्र कहेहैं,और आत्माके उपधान तो कभी होसकतेनहीं, किंतु आत्माकोशुद्धिरूप क्रियाके उपधान होसकतेहैं. आत्मा तो स्वयं उप. थान करनेवालाहै, और उपधान क्रियारूपहैं, सामायिकरूप आत्माके उपधान तोइरियावहीके पहिले या पीछेभी किसी शास्त्र में नहींकहेहैं, इसलिये आत्माके निजगुणरूप सामायिक संबंधी और इरियावहीव. गैरह आत्माकी शुद्धिरूप क्रियासंबंधी शास्त्रकार महाराजोंके भावार्थकोसमझेबिनाही पहिले इरियावहीके उपधानकरनेका पाठ देखकर सामायिकभी पहिलेइरियावही स्थापनकरतेहैं, उन्होंको अज्ञानताहै. ४१-कितनेकआग्रहीलोग नवांगीवृत्तिकार श्रीअभयदेवसूरिजी के नामसे अथवा उन्होंके शिष्य श्रीपरमानंदसूरिजीके नामसे सामा. यिक पहिलेइरिवावही पीछेकरेमिभंते कहने संबंधी श्रीअभयदेवसू. रिजीकृत 'सामाचारी' ग्रंथका पाठ भोले जीवोंको बतलाते हैं, सोभी प्र. स्यक्षमिथ्याहै,क्योकि-देखोश्रीनवांगीवृत्तिकार महाराजने खास 'पं. चाशक' सूत्रकीवृत्तिमें सामायिक प्रथम करेमिभंते और पीछे इरियावही खुलासापूर्वक लिखीहै, सर्व प्राचीन पूर्वाचार्यभी ऐसेही लिखे गयेहैं, यही बात जिनाशानुसार है । इसलिये इन्हीं महाराजने खास 'सामाचारी' ग्रंथमेभी प्रथम करेमिभंते और पीछे इरियावही लिखी थी, उसपाठको निकाल देना और प्रथम इरियावही पीछे करेभिभंते कहनेका पाठ अपनी मति कल्पना मुजब नवीन बनवाकर बडे प्रौढ प्रामाणिकपुरुषोंकेबनाये ग्रंथ प्रक्षेपकरके भोलेंजीवाकोबतलाकर उ. मार्ग चलाना यह बडाभारीदोष है, देखिये-कोईभीपूर्वाचार्यमहाराजने सामायिकमें प्रथम इरियावही पीछेकरेमिभंते नहीं लिखी, किंतप्र. थम करेमिभंते पीछे इरियावही सर्व प्राचीन पूर्वाचार्योंने सर्वशास्त्रोंमें लिखीहै. तो फिर श्रीनवांगीवृत्तिकारक जैसे प्रौढ प्रामाणिक सर्व सम्मत यह महाराज सर्व पूर्वाचार्यों के विरुद्ध होकर प्रथम इरियावही पीछे करेमिभंते कैसे लिखेंगे, ऐसा कभी नहीं हो सकता.इसलि. ये इन महाराजके नामसे प्रथम इरियावही पीछे करेमिभंते करनेका ठहराने वाले प्रत्यक्ष मिथ्यावादी हैं । For Private And Personal
SR No.020134
Book TitleBruhat Paryushananirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar Maharaj
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages585
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size10 MB
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