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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भविमेदक यह रोग जब अधिक बढ़ जाता है तब एक ओर के कान और नेत्र को नष्ट कर देता है। यूनानी वैद्यक के मत से शक्कीकह एक प्रकार का शिरोशूल है जो साधारणतः प्राधे शिर में अर्थात् शिर की वाम वा दक्षिण पार्श्व में होता है, किन्तु कभी सम्पूर्ण शिर में होता है । - जैसा मुल्ला नतीस ने इसकी व्याख्या की है। ऐसी दशा में इसको शकीकह आम कहते हैं। निम्नलिखित डॉक्टरी नोट से भी इसकी सत्यता स्थापित होती है। इस वेदना की विशेषता यह है कि यह साधारणतः परियाय रूप से अर्थात् दौरे के साथ हुआ करती है। इसके साथ सामान्यतः हल्जास एवं वमन विकार होते हैं। जिस समय यह वेदना सम्पूर्ण शिर में होती है उस समय इसको सुदा बैजह (सम्पूर्ण शिर के दर्द) से पहिचानने में भ्रम हो जाया करता है। इन दोनों में मुख्य भेद यह है-शकीकह में शाटिकी धमनियों में स्पन्दन अधिक होती है और उनको दबा लेने से वेदना शान्त हो जाती है; किन्तु सुदाबै जाम् में ऐसा नहीं होता। f2 stait ( Tic Douloureux ) अर्थात् इसाब ( भौंहों के दर्द) को भी किसी किसी डॉक्टरी उर्दू ग्रंथों में दर्दे शकीकह लिखा है। परन्तु यह ठीक नहीं। डॉक्टरी मत डॉक्टरों के मत से माइग्रीन एक प्रकार का नौयती शिरःशूल है जो सामान्यतः माधे शिर में हुप्रा करता है। निदान-उनके मतानुसार यह प्रायः पैतृक होता और अधिकतर स्त्रियों को होता है। विशेषतः अधिक रजःस्राव होने या अधिक काल तक स्तन्यदान से यह हो जाता है। कभी | कभी वायगोना भी इसका कारण होता है। विकार, थकावट व श्रम, उपवास एवं निर्वबता, अजीर्ण, अनिद्रा, तीन प्रकाश, उग्र गंध, मलेरिया द्वारा उम्र विषाकता, अति मैथुन, वृक्ष म्याधि और मुख्यकर दृष्टि दोष इत्यादि इसके प्रोत्साहक एवं उत्पादक कारण हैं। - लक्षण -साभरणतः वेदनारम्भ से पूर्व तबी प्राभेदक . यत पालस्यपूर्ण एवं शिथिल होती है, सिर घूमता है, मेत्र के सामने चिनगारियां प्रभृति उड़ती दृष्टिगोचर होती हैं। ये लक्षण पूर्वरूप में होते हैं। फिर इस प्रकार वेदना प्रारम्भ होती हैप्रथम कनपटी और भौंहों में मन्द मन्द वेदमा प्रारम्भ होकर उग्र रूप धारण करती जाती है। यहाँ तक कि कुछ काल पश्चात् अत्यन्त तीन वेदना होने लगती है। ऐसा प्रतीत होता है गोया शिर विदीर्ण हुमा जाता हो। गति करने से वेदना की वृद्धि होती है। प्रायः तो शिर के एक ही पार्श्व में वेदना होती है। किन्तु -किसी किसी समय सम्पूर्ण शिर में वेदना होती है। तो भी एक ओर तीव्र होती है। रोगी के लिए शब्द तथा प्रकाश असह्य होते हैं। उसकी आँखों के सामने भुनगे वा चिनगारिया उड़ती सी प्रतीत होती हैं। कर्णनाद होता, मुखमण्डल की विव ता, शरीर का कॉपना, नाड़ी की निर्बलता, हृल्लास ( मचली), उबकाइया पाना प्रादि लक्षण होकर अन्तत: एक ओर की कनपटी या भौंह में न्यथा टिक जाती है। दो-तीन घंटे से लेकर साधारणत: २४ घंटे तक और यनि उम्र हो तो कभी २-३ दिवस पर्यन्त रहकर जब शमन होने लगती है तब रोगी को नींद या जाती है। जागृत होने पर वह सर्वथा स्वस्थ होता है और फिर कुछ दिवस परचात्, पर सामान्यतः ३ या ४ सप्ताह बाद दर्द का वेग होता है। अर्थावभेदक की चिकित्सा अर्धावभेदक में दोषों का सम्बन्ध विचार कर शिरोरागान्तर्गत चिकित्सा का भवलम्बन करे। अविभेदके प्येषा यथा दोषावयाकिया। (वा० उ० १४०) अस्तु सिरस के बीज, ओंगा की जर तथा विडनमक इनका नस्य अथवा शालपी के कारे का नस्य अथवा कॉजी के साथ पिसे हुए पवाद "के बीजों कालेप हितकारी है। यथा For Private and Personal Use Only
SR No.020089
Book TitleAyurvediya Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1934
Total Pages895
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size29 MB
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