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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भोंगी में ५ पहर तक हलकी जांच में पकाएँ और इसके | बराबर त्रिकटु का चूर्ण मिलाकर बारीक पीस रख ले। मात्रा-२ रत्ती। गुण- यह अद्भांग वात और एकांग वात को नष्ट करता है । रस. यो० सो०। प्रांगी arddhangi-हिं० वि० [सं० ] (१) पक्षाघाती अद्धींग-रोग-ग्रस्त । (One afflicted with the hemiplegia.) माशोनजलम् arddhanshona.jalam -सं० ली. अांश हीन पक्व जल, प्राधा भाग से कम पकाया हुआ जल । यह वात पित्त नाशक है। ग० नि० ५० १४ । मछलिगः arddhāligah-सं-पु. जल सर्प । (Aquatic serpent.) वै०निघ०।। अयिभेदक: arddhava bhedakah | -सं.प. अविभेदक ardhava-bhedaka -हिसंज्ञा पु. एक प्रकार का परियाय से होने वाला शिरःशूल जो सामान्यतः प्राधे शिर में, कभी कभी सम्पूर्ण शिर में हुआ करता है । इसमें जी मचलाता और उबकाइयाँ आती हैं और आँखों के सामने चिनगारिया सी उड़ती दृष्टिगोचर होती हैं इत्यादि। प्राधासीसी । अर्धभेदक, अधकपारी (ली)। हेमिक्रेनिया (Hemierania ), माइ. ग्रीन Migraine, सिकहेडेक Sick headache, मेग्रिम Megrim, नर्वस हेडेक Nervous headache-इं० । माइग्रीन Migraine-फ्रां० । माइग्रेन Migrane -जर । शक्की कह, सुदाञ् निस फ्री, सुदा ग़स यानी-अ०। दर्दे नीम सर, दर्दे शक्रीकह , दर्दे सर ग़स यानी-फा०, उ० । आधासीसी, सर का दर्द-उ० । प्राध् कपालेर धरा-ब। आयुर्वेद के मत से मस्तक के प्राधे भाग में होने वाले शिरोविकार को अविभेदक कहते हैं ।। उनको इसका परियाय रूप से होना. मी स्वीकार है। यथा भीष भेदक अर्धे तु मूनः सोर्धावभेदकः । पक्षात्कुप्यति मासाद्वा स्वमेव च शाम्यति । अति वृद्धस्तु नयनं श्रवणं या विनाशयेत् ॥ (वा० उ०२३५०) अर्थ-मस्तक के प्राधे भाग में जो शिरोविकार होता है, उसे अर्धावभेदक कहते हैं। यह रोग पन्द्रहवें दिन वा भास मास में कुपित होता है और औषध के बिना अपने आप शान्त हो जाता है। अङवभेदक प्रबल हो जाने पर नेत्र वा कानों को मार देता है। सुश्रुताचार्य भी ऐसा ही मानते हैं। परन्तु माधव के विरुद्ध केवल एक वा दो दोषों से ही कुपित हश्रा न मानकर तीनों दोषोंसे कुपित हुना मानते हैं । यथायस्यात्तमाङ्गार्धमतीव जन्तोः संभेद तोद भ्रम शूल जुष्टम् । पक्षाशाहादथवाप्यकस्मात्तस्याभेदं त्रितयाद् व्यवस्येत् ॥ (सु० उ० २६०) माधवाचार्य के मत सेरुक्षाशमात्यध्यशन प्राग्वातावश्याय मैथुनः । वेगसंधारणायास व्यायामैः कुपितोऽनिलः॥ केवलः सकफोबाधं गृहीत्वा शिरसोघली । मन्याभ्रश कर्णाक्षि ललाटार्धेऽतिवेदनाम्॥ शस्त्रारणिनिमांकात तीनांसोऽविभेदकः नयनंबाथवा श्रोत्रमतिवृद्धो विनाशयेत् ॥ (मा० नि०) अर्थ-अत्यन्त रूखे पदार्थ खाने से अधिक भोजन करने से, भोजन पर भोजन करने से पूर्व की वायु एवं बर्फ का सेवन करने से, अति मैथुन करने तथा मल मूत्रादिक के वेगों को रोकने से, अधिक श्रम तथा व्यायाम करने आदि कारणों से केवल वायु अथवा कफ संयुक्र वायु कुपित होकर आधे शिर को ग्रहण कर मन्या नाड़ी, भौंह, कनपटी, कान, नेत्र और ललाट एक ओर के इन सभी अवयवों में कुरुह्माकी के काटने कीसी अथवा अरणी ( जो मय कर अग्नि निकालने की लकड़ी है) के समान तीन पीड़ा उत्पन्न करता है उसको अर्धावभेवक कहते है, For Private and Personal Use Only
SR No.020089
Book TitleAyurvediya Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1934
Total Pages895
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size29 MB
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