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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अदित अर्दित यस्याग्रजो रोमहर्षो वेपथुनॆत्रमाविलम् । (लकवा ) कहते हैं। वाग्भट्ट के अनुसार कोई वायुरूवं त्वचि स्वापस्तादोमन्या हनुग्रहः॥ कोई इसको एकायान भी कहते हैं । तमर्दितमिति प्राहुाधि व्याधिविचक्षणा ॥ अन्य तन्त्रों में प्राधे मुख की तरह अर्द्ध (मा०नि० ! सु० नि०) शरीर में व्याप्त वातग्रस्तता को भी अर्दित नाम अर्थ-निदान-गर्भवती, प्रसूता स्त्री, बालक, से ही लिखा है । यथावृद्ध, दुर्बल तथा शोणित ..य वाले की ( स०) 'श्रधे तस्मिन मुखाधे वाके लेस्यात्तदर्दितम्'। और ऊँचे स्वर से बोलने से, कम्नि वस्तु खाने ... (दृढ़वलः) से, बहुत हंसने से, जम्हाई लेने से, बोझ ढोने यदि ऐसा है तो अदित और श्रद्धांगवात में से. ऊँचे नीचे स्थान में सोने (विषम भारवहन . अन्तर क्या रहा ? उत्तर में कहते हैं कि इन दोनों तथा विषम श्वास प्रश्वास के कारण -सु०) में भेद यह है कि अर्दित में कदाचित् ही वेदना श्रादि कारणों से (वाग्भट में ये कारण विशेष होती है, किंतु श्रद्धांगवात में सर्वदा ही वेदना -लिखे हैं यथा शिर पर बोझ ढोना, उना मुख बनी रहती है। अथवा पूर्वोक्र अर्दित के उन होना, बल पूर्वक छींक लेना, कठोर धनुष को सभी लक्षणों के विपरीत लक्षण श्रद्धांगवात के खींचना, ऊँचे नीचे तकिए पर शिर धरना तथा होते हैं। अन्य वान प्रकोपक हेतु ) सम्पाप्ति'-वायु परन्तु चरक, सुशुत, वाग्भट्ट तथा माधव प्रादि प्रकुपित होकर शिर, नाक, श्रोष्ठ, ठोड़ी, ललाट ग्रंथ निर्माताओं ने केवल मुखमात्र की वाततथा नेत्रों की संधियों अर्थात् शरीर के ऊर्ध्व भाग प्रस्तता को ही अर्दित नाम से अभिहित किया है में प्राप्त होकर एक ओरके मुख ( वाग्भट्टके अनु और श्रद्धांगवात को एकांगवात, पक्षवध तथा सर हँसने भौर देखने को भी)-को टेढ़ा कर पक्षाघात प्रादि नामों से । अस्तु ऐसा ही मानकर ( क्वचित् पार्श्वद्वय की पेशियों वातप्रस्त हो उक्त शब्द का व्यवहार करना शास्त्र सम्मत है। जाती हैं ) अर्दित रोग को उत्पन्न करता है ।। — डॉक्टर लोग शीत लगना, कनफेड़, उपदंश, : लक्षण-इसमें प्राधा मुख टेदा होजाता है। कतिपय मस्तिष्क रोग, कर्णास्थि क्षत, किसी गर्दन नहीं मुदती, शिर हिलने लगता है, बोला दाँतका खराब हो जाना तथा निर्बलता इत्यादि नहीं जाता, नेत्रादि बिगड़ जाते हैं और जिस | इसके उत्पादक कारण मानते हैं । इनके अनुसार धमकी और वह टेढ़ा होता है उसी पोर की। भो अर्दित के प्राय: वे ही लक्षण हैं जिनका वर्णन गर्दन, ठोड़ी और दातोंमें पीड़ा होती है । वाग्भट्ट ऊपर किया गया है। जैसे-- ने ये विशेष लिखे हैं- ............ विकृत मुखमण्डल का स्वस्थ की ओर आकृष्ट दंतचाल, स्वरभ्रंश, ४.वण शक्ति का नाश, हो जाना ( मुखमण्डल जिस भोर को छींके का बन्द हो जाना, माणाज्ञता, स्मृतिका पाकुञ्चित होता है वास्तव में वह पार्श्व सुस्थ मोह, स्वप्नावस्था में त्रास, दोनों ओर से थूक होता है), मुख के ५क कोने का नीचे की ओर निकलना, एक ख का बन्द होना, जत्रु के ऊपर . लटक पड़ना, मुख प्रसेक, जलपान करते समय के भाम में वा शरीर के प्राधे भाग में वा बीचे के उसका बाहर बह चलना, कफ निष्ठीवन की भाग में तीव्र वेदना प्रादि उपद्रव उपस्थित होते. असमर्थता. सीटी न बजा सक : असमर्थता, सीटी न बजा सकना और न फूंक मार है। पूर्वरूप-जिस - रोम के पूर्व रोमात्र हो, सकना इत्यादि लक्षण होते हैं। रोगी पवर्ग के शरीर कॉपे, नेत्रःमलयुक्र हों और घायु ऊपर को अक्षरों का उच्चारण नहीं कर सकता अर्थात् गमैन करे, त्वचा शून्य हो जाए, सूई चुमने की उसके प्रोष्ठ परस्पर नहीं मिल सकते हैं। विकृत सी पीड़ा हो, मन्या नाही तथा ठोड़ी जकड़ पार्श्व का नेत्र खुला रहता है और उससे मश्रु ....... जाएं उसको रोगों के जानने वाले अर्दित | स्राव होता रहता है। For Private and Personal Use Only
SR No.020089
Book TitleAyurvediya Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1934
Total Pages895
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size29 MB
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