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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org वृद्धि hernia ) वा ब्युत्रोनोसील ( Bubonocele) कहते हैं । और जब वह बाहर निकल आए तब उसको क्रमशः पूर्ण श्रन्त्रवृद्धि, फ़तूक कामिल तथा कम्प्लीट हर्निया ( Cmpiete hernia ) कहते हैं । चूँकि पुरुषोंमें यह श्रण्डकोष में चली जाती है । अस्तु इसको अण्डकोष - वृद्धि (मुष्क वृद्धि) फ़तूक सिफ़न वा फोतुह् का प्रतक और स्क्रोटल हर्निया ( Scrotal hernia ) कहते हैं । स्त्री के शरीर में यह वंक्षण या उरुसंधि के कुछ नीचे प्रकट होती है। स्त्रियों की अपेक्षा यह पुरुषों को ही हुआ करती है । इसे आयुर्वेद में ब्रभ कहा गया है। इनमें से यहाँ प्रत्येक का पृथक् पृथक् वर्णन किया जाता है - ३५४ ( क ) तिर्यग् वंक्षण-अंत्रवृद्धि agar तिर्छा तक - उ० । फ्रत् कुल उर्बिय्यह् मुन्हरिफ़ - अ० । थॉब्लीक इंग्वीनल हर्निया (Oblique inguinal hernia ) - इं० । इस प्रकार की प्रांत्रवृद्धि वंक्षण प्रणाली (Inguinal canal ) में होती हैं, उससे बाहर नहीं निकलती । लक्षण- इस प्रकार की वृद्धि में रोगी के खड़े होने या खाँसने से वंक्षण की नाली के भीतर उभार प्रतीत होता है । यदि नाली के भीतर श्रगुली प्रविष्ट कर रोगी को खाँसने की आज्ञा दें तो खाँसने से गुली पर उक्त वृद्धि के श्राघात का बोध होता है । इस भाँति की तिर्यग् व ंक्षण वृद्धि में वृद्धि डाकार होती है । उस पर छः परत होते हैं । कौक्षेयी धमनियाँ और अण्डधारक रज्जु उक्र वृद्धि के पीछे तथा अण्डकोष उसके नीचे होते 1 ( ख ) सरल वंक्षण- श्रन्त्रवृद्धि चड्डेका सीधा फ़तक - उ० | फ़क ल् उर्बिय्यह् मुस्तकीम - अ० । डायरेक्ट इंग्वीनल हर्निया ( Direct inguinal hernia ) - इं० । लक्षण - इस प्रकार की वृद्धि में प्रांत्र प्रभृति क्षण नलिका में से न निकल कर उसके वहिfrea के पीछे से निकलती हैं । इस दशा में बुधि अत्यन्त स्थूल होती है । तिर्यग वृद्धि के Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अन्वृद्धि समान इस पर भी छः परदे होते हैं। इस तरह की वृद्धि में कौतीय धमनियाँ और भरडधारक रज्जुएँ वृद्धि की प्रीवा की वाह्य श्रोर और अण्ड पीछे की ओर स्थित मालूम होते हैं । वृद्धि बुदाकार गोल शकल की उपस्थमूल के समीप स्थित होती है । (ग) जातज वा पैदायशी (सहज) अंत्रवृद्धि पैदायशी फ़टन - 30 | फ़क मौलूदी - अ० । कन्जेनिटल हर्निया ( Congenital hernia ) इं० । यह भी एक प्रकार की तिर्यग अंत्रवृद्धि है जो जन्म काल प्रथवा जन्मके पश्चात् उपस्थित होती है । इस में वसा वा यंत्र का भाग फ़ोतों के साथ वेष्ट में उतर आता है और उसके को में रहता है। इसकी थैली उक्त बेष्टके परदों से बनती है और अंत्र अण्ड के पीछे रहती है। इस प्रकार की वृद्धि की रसौली ( अर्बुद ) गोल और उसकी ग्रीवा संकुचित होती है । यद्यपि श्रण्ड वृद्धि से पृथक् होते हैं। परन्तु उससे श्रावृत होते है । इसके साथ अण्डकोष में जल संचित ( कुरण्ड - हाइड्रोसील ) भी होता है। नोट- गर्भावस्था में श्रण्ड उदरमें उदरच्छदा कला (परिविस्तृत कला ) के पीछे और वृक्क के नीचे रहते हैं। पाँचवें मास में वृषण की गोलियाँ वृषणों में उतरती हैं। किसी किसी के मत से ५ या ६ मास हो जाने पर ये गुठलियाँ उदर गह्वर से वस्ति नहर में आती हैं, फिर सातवें मास में कमर के सामने और आठवें मास में अपने वृषण स्थान में उतर पड़ती हैं। जब अण्ड उदर में से उतर कर कोष में आता है, तब उस पर उदर की दीवार के मांस एवं सौत्रिक पाँच कोषों के अतिरिक्त एक कोष उदरककला ( Peritoneum ) का भी होता है । इसके दो भाग होते हैं । प्रथम वह जो श्रण्डधारक रज्जु को श्राच्छादित करता है और द्वितीय जो श्रण्ड को आवरित करता है । जन्म के बाद भरडधारक रज्जु को आच्छादित करने वाला उदरक कला का भाग नष्ट हो जाता है और अण्डवाला भाग For Private and Personal Use Only
SR No.020089
Book TitleAyurvediya Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1934
Total Pages895
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size29 MB
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