SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 395
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मन्त्र-वृद्धि ३५३ अन्न-वृद्धि (इन कारणों से वात प्रकुपित होने के कारण) वे छिद्र और भी बड़े हो जाते हैं, तथा उन्हीं के द्वारा काल पाकर बड़ी अंतड़ियों का (अथवा छोटी अंतदियों का भी) कुछ भाग नीचे उतर कर सरल मार्ग से वंक्षण संधि से होते हुए घृषणों में प्रवेश कर जाता है। ऐसी स्थिति में जब उन छिद्रों में प्राकुचन की क्रिया होती है तब उन पैंतदियों में दबाव के पड़ने से अत्यन्त वेदना होती है। चिरकारी कास, अत्यन्त श्रम और चिरकारी मलावरोध इत्यादि कारणों से भी यह रोग हो जाता है। (घ) जठरस्नायु को दुर्बल या शिथिल करने वाले कारण-मेदोवृद्धि, त्रिपतन रोग इत्यादि। (6) वस्त्यश्मरी प्रभृति के कारण अब मूत्रावरोध हो, जिससे मूत्रोत्सर्ग काल में कॉखना या या जोर लगाना पड़े, तब भी प्रायः यह शिकायत हो जाती है। (च) गर्भावस्था में उदर की दीवार पर ज़ोर पड़कर उसके तनने से भी उदरांत्रवृद्धि की उत्पत्ति होती है। (0) उसी प्रकार वृद्धावस्था में जब उदर शिथिल होकर तोंद निकल पाता है तब उग्र कास प्रभूति से इस रोग के होने का भय होता है। (ज) स्थूल या मेदावी व्यक्तियों को भी यह रोग अधिक हुआ करता है। क्योंकि उदरस्थ मेदवृद्धि के कारण उदरीय अवयवों पर भार पड़ कर पेट तना रहता है, इत्यादि । वृद्धि के भाग प्रत्येक वृद्धि सम्बन्धी प्रवुद के तीन भाग होते हैं । यथा-(1) ग्रीवा, (२) गात्र और (३) मुख । अस्तु आँत का हिस्सा जहाँ निकलता है उसको प्रीवा और जहाँ ठहरता है उसे गात्र कहते हैं। कई बार ग्रीवा के तंग होने के कारण या ग्रीवा का मुख बंद हो जाने के कारण अंत्रवृद्धि विन्यस्त नहीं हो सकती। अंत्रवृद्धि भेद स्थानानुसार एवं विविध लक्षणों से युक्त होने के कारण अंत्रवृद्धि रोग कई प्रकार का होता है। यहाँ उनमें से प्रत्येक का विस्तृत वर्णन विषा जाता है : (१) वंक्षणांत्रवृद्धि-जब अन्त्रण्या कला वंक्षण स्थान में विदीर्ण हो जाए, जिससे कोई वस्तु (अंत्र वा वसा प्रमृति) उदर में से नीचे पाकर वंक्षण अर्थात् चढे की मली में रुक जाए, किंतु अंडकोष में न उतरे, तब उसको उक्त नाम से अभिहित करते हैं। अरबी में इसे फ्रत्कुल उर्बिय्यह वा फ्रत्क फ़ज़ी तथा अंगरेजी में म्युबोनोसील ( Bubonocele) कहते हैं। नोट-ज्ञात रहे कि वंषण में दो प्राकृतिक नलियाँ होती हैं-(.) वक्षण नलिका ( Inguinal canal )-इस मार्ग से होकर अंड अपनो डोरी (अण्डधारक रज्जु) से अण्डकोष में उतरता है । और ( २ ) ऊर्व नलिका ( Femoral canal) इसके रास्ते उरु की रगे गुजरती हैं। अस्तु जब उदर में से अन्न वा घसा वंक्षण नलिका में उतर कर उभर पाए तब उसको वंक्षणात्रवृद्धि कहते हैं और यदि यह उई नलिका (जो वंक्षण के बाहर की ओर स्थित है) में उतर कर उभर आए तो उसको जात्रवृद्धि कहते हैं। अब इनमें से प्रत्येक का अलग अलग वर्णन किया जाता है। वंक्षणांत्रवृद्धि चड्डेका फत्क-उ० । तत्कुल उबिय्यह-१०। gifiaan effet ( Inguinal hernia ) -ई० । इसके मुख्य ४ भेद हैं (१) वंक्षण सरलांत्रवृद्धि, (२) वंक्षण तिर्यग् ( असरल ) अन्त्रवृद्धि, (३) सहजात्रवृद्धि और ( ४ ) कोषाकार वृद्धि | रोग की उन्नति के विचार से पुनः इनकी ये अवस्थाएँ होती हैं । अस्तु, यदि वृद्धि वंक्षण की नली के भीतर ही रहे, बाहर न निकले तो उसे अपूर्ण अन्वृद्धि, अरबी में तत्क़ नाकिस तथा अंगरेजी में इन्कम्प्लीट हर्मिया ( Incomplete For Private and Personal Use Only
SR No.020089
Book TitleAyurvediya Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1934
Total Pages895
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy