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उत्तरस्थानं भाषाटीकासमेतम् । (८७१): जीर्णागुडात्तुलार्द्धन पक्केन वटकीकृतम् ॥६॥
पीनसश्वासकासन्नं रुचिस्वरकरं परम् ॥ . और सूंठ मिरच पीपल तालीसपत्र चव्य अमली अम्लवेतस ॥ ५ ॥ चीता जीरा ये सब आठ आठ तोले और दालचीनी इलायची तेजपात दो दो तोल इन्होंका चूरनकर पक्ककिये २०० तोले पुराने गुडमें गोलियां बनावै, ॥ ६ ॥ ये गोली पीनस श्वास खांसी इन्होंको नाशतीहैं रुचीको और स्वरको अतिशयकरके उपजातीहैं ।।।
शताह्वात्वग्बलामूलं श्योनाकैरण्डबिल्वजम् ॥७॥ सारग्वधं पिबेछूमं वसाज्यमदनाऽन्वितम् ॥
अथवा सघृतान्सक्तून्कृत्वा मल्लकसम्पुटे ॥८॥ और शोफ दालचीनी खरेहटीकी जड सोनापाठा अरंड बेलगिरी ॥७॥अमलतास वसा घृत मैंनफल इन्होंसे संयुक्तकिये धूएंको पावै अथवा सकोराके संपुटमें घृतसे संयुक्तकरे सतुओंकेधूएंको पीवै॥८॥
त्यजेस्लानं शुचं क्रोधं भृशं शय्यां हिमं जलम् ॥ यह प्रतिश्यायरोगी स्नान शोक क्रोध अतिशयकरके शय्याको सेवना शीतल पानीको त्यागै ॥
पिबेद्वातप्रतिश्याये सर्पितघ्नसाधितम् ॥ ९॥ पटुपञ्चकसिद्धं वा विदार्यादिगणेन वा॥
स्वेदनस्यादिकां कुर्याचिकित्सामर्दितोदिताम् ॥१०॥ वातके प्रतिश्यायमें वातको नाशनेवाले औषधोंकरके साधितकिये घृतको पावै ॥ ९ ॥ अथवा पांचो नमकोंमें सिद्धकिये अथवा विदार्यादिगणके औषधोंमें सिद्धकिये घृतको पावै, तथा आईतवातमें कहीहुई स्वेद और नस्य आदि क्रियाको करै ॥ १० ॥
पित्तरक्तोत्थयोः पेयं सर्पिर्मधुरकैः शृतम्॥
परिषेकात्प्रेदेहांश्च शीतैः कुर्वीत शीतलान् ॥११॥ पित्तसे और रक्तसे उपजे प्रतिश्यायमें मधुरद्रव्योंमें पकायाहुआ घृत पीना योग्य है और शीतवी. येवाले द्रव्योंकरके शीतलरूप परिषेक और लेपोंको करै ॥ ११ ॥
धवत्वत्रिफलाश्यामाश्रीपर्णीयष्टिबिल्वकैः ॥
क्षीरे दशगुणे तैलं नावनं सनिशैः पचेत् ॥ १२॥ धवकी छाल त्रिफला कालानिशोत कंभारी मुलहटी बेलगिरी हलदीके कल्कोंकरके और दशगुने दूधमें तेलको पकावै यह उत्तम नस्यहै ।। १२ ।।
कफजे लंघनं लेपः शिरसो गौरसर्षपैः॥ . सक्षारं वा घृतं पीत्वा वमेत्पिष्टैस्तु नावनम् ॥ १३॥ बस्ताम्बुना पटुव्योषवेल्लवत्सकजीरकैः॥
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