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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तरस्थानं भाषाटीका समेतम् । (७९९ ) ताः ॥ वर्त्मसन्धिसितं कृष्णं दृष्टिं वा सर्वमाक्ष वा ॥ २ ॥ रो गान्कुर्युश्चलस्तत्र प्राप्य वर्त्माश्रयाः शिराः ॥ सुप्तोत्थितस्य कुरुतेवर्त्मस्तम्भं सवेदनम्॥३॥ पांशुपूर्णाभनेत्रत्वं कृच्छ्रोन्मीलनमश्रु च॥विमर्दनात्स्याच्च शमः कृच्छ्रोन्मीलं वदन्ति तम् ॥४॥ सब रोगों के निदान में कहे हुये अहित भोजनोंसे कुपितहुये मल अर्थात् दोष विशेषकरके नेत्रों में अहित भोजनों से पित्त के अनुसारितहुये वे दोष शिराओंके द्वारासे ऊपरको फैलके नयनके अंगोंके आश्रयहुये ॥१ ॥ नेत्रके वर्मको संधि सितभागको कृष्णभागको दृष्टिको ॥ २ ॥ रोगयुक्त करदेते हैं, तहां वर्त्मके आश्रय हुई शिराओं को वायु प्राप्तहोके सोके उठेहुए मनुष्य के पीडासहित वर्त्मस्तंभरोगको करदेता है ॥ ३ ॥ धूलसे पूर्णहुये सरीखे नेत्र दीखें और बडे कष्टसे मींचे और भांशू गिरैं और मसलनेसे शांतिको प्राप्त होजावे तिसको कृच्छ्रोन्मील रोग कहते हैं ||४|| चालयन्वर्त्मनी वायुर्निमेषोन्मेषणं मुहुः ॥ करोत्यरुङनिमेषेऽसौ वर्त्म यत्तु निमील्यते ॥ ५ ॥ विमुक्तसन्धिनिश्चेष्टं हीनं वातहतं हि तत् ॥ और वायु को चलायमान करता हुआ पीडारहित आंखके खुलने और मीचनको करता है यह निमेषरोग कहाता है और जहां वह वर्त्म मींचाजावे || ५ || और संधिसे छुटाछु आहो और चेष्टासे रहित होनहुआ मींचे वह वातहत रोग कहाता है || कृष्णाः पित्तेन वह्नयोऽन्तर्वर्त्मकुम्भीकबीजवत् ॥ ६॥ आध्मायन्ते पुनर्भिन्नाः पिटिकाः कुम्भिसंज्ञिताः ॥ और पित्तसे काले वर्णकी और पुन्नागके बीजकी तुल्य बहुतसी पिडिका होजाती हैं ॥ ६ ॥ और फूटके फिर फूलजावे वे कुंभीसंज्ञक पिडिका कहाती हैं ॥ सदाहक्लेदनिस्तोदं रक्ताभं स्पर्शनाक्षमम् ॥ ७ ॥ पित्तेन जायते व पित्तोत्क्लिष्टमुशन्ति तत् ॥ दाहसहित क्लेद और चमकासे युक्त लालवर्णवालाहो और स्पर्श नहीं कियाजावे ॥ ७ ॥ ऐसा पित्तकर हो जाता है तिसको पित्ताक्लिष्ट कहते हैं | करोति कण्डूं दाहं च पित्तं पक्ष्मान्तमास्थितम् ॥ ८ ॥ पक्ष्मणां शातनं चानु पक्ष्मशातं वदन्ति तम् ॥ और पलकोंके अंतमें स्थितहुआ पित्त खाजको और दाहको करता है ॥ ८ ॥ और पश्चात् पलकों को कतरेगेरै तिसको पक्ष्मशात रोग कहते हैं ॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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