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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org चिकित्सास्थानं भाषाटीकासमेतम् । ( ५७१ ) भित्त्वाविबन्धाननुलोमनाय यन्मारुतस्याग्निबलाय यच्च ॥ तदन्नपानौषधमर्शसेन सेव्यं विवर्ज्यं विपरीतमस्मात् ॥ १६३ ॥ वायुके अनुलोमनके अर्थ और अग्निको बढानेके अर्थ बन्धों को भेदन करके जो अन्न पान औषध है वह बवासीर रोगीको सेवन करना योग्य है और इससे विपरीत वर्जित करना योग्यहै ॥ १६३ ॥ अर्शोऽतिसारग्रहणीविकाराः प्रायेण चान्योऽन्यनिदानभूताः ॥ सन्नेऽनले सन्ति न सन्ति दीप्ते रक्षेदतस्तेषु विशेषतोग्निम् ॥ १६४ ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रायताकरके परस्पर निदानवाले बवासीर अतिसार ग्रहणीदोष ये रोग अग्निकी मंदता में होते हैं और दीप्तहुई अग्निमें नहीं होते इसवास्ते बवासीर अतिसार संग्रहणी में कुशलवैद्य अनिकी रक्षा करै ॥ १६४ ॥ इति बेरीनिवासिवैद्यपंडित रविदत्तशास्त्रिकृताऽष्टांगहृदयसंहिता भाषाटी कार्याचिकित्सास्थाने अष्टमोऽध्यायः ॥ ८ ॥ नवमोऽध्यायः । DOC अथातोऽतीसारचिकित्सितं व्याख्यास्यामः । इसके अनंतर अतिसार चिकित्सितनामक अध्यायका व्याख्यान करेंगे । अतीसारो हि भूयिष्ठं भवत्यामाशयान्वयः ॥ हत्वाग्निं वातजेप्यस्मात्प्राक्तस्मिल्लघनं हितम् ॥ १ ॥ शूलानाहप्रसेकार्त्तं वा मयेदतिसारिणम् ॥ विशेषकरके अग्निको नष्ट कर आमाशय में युक्त अतिसार होता है इसकारणसे वातसे उपजे अतिसारमेंभी प्रथम लंघनही हितहै ॥ १ ॥ शूल अफारा प्रसेकसे पीडित अतिसारखाले रोगीको वमन करावै ॥ दोषाः सन्निचिता ये च विदग्धाहारमूर्च्छिताः ॥ २॥ अतिसाराय कल्प्यन्ते तेषूपेक्षैव भेषजम् ॥ भृशोत्क्लेशप्रवृत्तेषु स्वयमेवचलात्मसु ॥ ३ ॥ और विदग्ध भोजन करके मूच्छित हुये और अत्यंत वृद्धिको प्राप्त हुये वातआदि दोष ॥ २ ॥ अतिसार के अर्थ कल्पित किये जाते हैं और अत्यंत उत्क्लेशकर के प्रवृत्त हुये और आपही चलितस्वभाववाले तिन दोषोंमें पथ्यको सेवना यही औषध है अर्थात् पाचन आदि औषध नहीं ॥ ३ ॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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