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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (५७२) अष्टाङ्गहृदयेप्रयोज्यं नतु संग्राहि पूर्वमामातिसारिणि ॥ आमातिसारवाले मनुष्यके अर्थ प्रथम बंध करनेवाले औषधको प्रयुक्त नहीं करे ।। अपि चाध्मानगुरुताशूलस्तमित्यकारिणि ॥४॥ प्राणदा प्राणदा दोषे विवद्धे संप्रवर्तिनी॥ और अफारा भारीपन शूल स्तिमितपनसे संयुक्त आमातिसाररोगीके अर्थ ॥ ४ ॥ विबद्ध अर्थात् अल्प अल्प करके प्रवृत्तमान हुये दोषमें प्रवर्तन करनेवाली और प्राणोंको देनेवाली हरड हितहै ॥ पिबेत्प्रकथितांस्तोये मध्यदोषो विशोषयन्॥५॥ भूतीकपिप्पलीशुण्ठीवचाधान्यहरीतकीः॥अथवा बिल्वधनिकामुस्तानागरवालकम् ॥६॥ विडपाठावचापथ्याकृमिजिन्नागराणि वा ॥ शुण्ठीघनवचामाद्रीबिल्ववत्सकहिङ्गवा ॥७॥ और मध्यदोषोंवाला अतिसाररोगी लंघनको करताहुआ ॥ ५ ॥ करंजुआ पीपल झूठ वच धनियां हरडै इन्होंका पानीमें क्वाथ बनाके पीवै अथवा बेलगिरी धनियां नागरमोथा झूठ नेत्रवाला इन्होंके काथोंको पीवै अथवा ॥ ६ ॥ मनियारीनमक पाठा वच हरडै वायविडंग सूंठके कार्थीको पीवै, अथवा सूंठ नागरमोथा वच कालाअतीश बेलगिरी कूडा हींगके कार्योंको पावै ॥ ७ ॥ शस्यते त्वल्पदोषाणामुपवासोऽतिसारिणाम ॥वचाप्रतिविषाभ्यां वा मुस्तापर्पटकेन वा ॥८॥ हीबेरनागराभ्यां वा विपक्कं पाययेजलम् ॥ अल्पदोषोंवाले अतिसाररोगवालोंको लंघन हितहै और तृषाके उपजनेमें वच और अतीशकरके अथवा नागरमोथा और पित्तपापडाकरके ॥ ८ ॥ अथवा नेत्रवाला और सूंठकरके पक्क किया पानीका पान करावै ॥ युक्तेऽनकाले क्षुत्क्षामं लध्वन्नं प्रतिभोजयेत्॥९॥ तथा स शीघ्रं प्राप्नोति रुचिमग्निबलं वलम् ॥ और युक्तरूप भोजनके समयमें क्षुधाकरके पीडित हुये अतिसार रोगीको हलका और अल्प अन्नका भोजन करावै ॥ ९॥ ऐसे करनेसे वह रोगी रुचि अग्निका बल इन्होंको शीघ्र प्राप्त होताहै ।। तणावन्तिसोमेन यवाग्वा तर्पणेन वा ॥१०॥ सरया मधुना चाथ यथासात्म्यमुपाचरेत् ॥ और कदाचित तक्रकरके कदाचित् कांजीकरके कदाचित् पेयाकरके कदाचित, तर्पणकरके ।। ॥ १० ॥ कदाचित् मदिराकरके कदाचित् माध्वीकमदिराकरके प्रकृति के अनुसार उपाचारत करै ।। For Private and Personal Use Only
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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