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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (३३८) मष्टाङ्गहदयेऔर रोगीके कारणके विना मुखपै तिल, व्यंग, झांई आदिअकस्मात् शीघ्रही नष्टहोजावे यह लक्षण मृत्युके अर्थ कहा है ॥ १२० ॥ मुखपै दन्तोंपै और नखोंपै पुष्पका उपजना रोगीकी मृत्युके अर्थ है और रोगीके पेटपै नानाप्रकारकरकी उपजोहुई शिरा मृत्युके अर्थ कही है और ऊर्चश्वासवाला और गर्माईसे रहित और शूलकरके अपहत अंडोंकी संधिवाले रोगीको ॥ १२१ ॥ और सुखको नहीं प्राप्त होनेवाले रोगीको बुद्धिमान् वैद्य त्यागै और जिसरोगीके विकारोंकी वृद्धि होवै और स्वभावकी हानि होवे ॥ १२२ ॥ ऐसे मनुष्यको शीघ्रही मृत्यु होजाती है ॥ यमुद्दिश्यातुरं वैद्यः सम्पादयितुमौषधम् ॥ १२३ ॥ यतमानो न शक्नोति दुर्लभं तस्य जीवितम् ॥ विज्ञातं वहुशः सिद्धं विधिवच्चावतारितम् ॥ १२४ ॥ न सिध्यत्यौषधं यस्य नास्ति तस्य चिकित्सितम् ॥ भवेद्यस्यौषधेऽन्ने वा कल्प्यमाने विपर्ययः ॥ १२५ ॥ अकस्माद्वर्णगन्धादेः स्वस्थोऽपि न स जीवति ॥ निवाते सेन्धनं यस्य ज्योतिश्चाप्युपशाम्यति ॥ १२६ ॥ आतुरस्य गृहे यस्य भिद्यन्ते वा पतन्ति वा ॥ अतिमात्रममत्राणि दर्लभं तस्य जीवितम् ॥ १२७॥ और जिसरोगीका उद्देशकर यत्नवाला वैद्य औषध देनेको ॥ १२३ ॥ नहीं समर्थ होवे तिसरोगीका जीवना दुर्लभ है और जिसरोगीके बहुतप्रकार जानाहुआ और बहुतप्रकार सिद्ध किया और विधिपूर्वक उपचारित किया, ॥ १२४ ॥ औषध सिद्धिको प्राप्त नहीं होवे तिस रोगीकी चिकित्सा नहीं है और जिसके औषधमें अथवा कल्पित किये अन्नमें ॥१२५॥ कारणके विना आपही वर्ण और गंधआदिका विपरीतपना होजावे तव स्वस्थ मनुष्यभी नहीं जीवता है और जिस रोगीके वायुसे रहित स्थानमें ईंधनसे संयुक्त हुआ अग्नि शांत होजावे तिसका जीवना दुर्लभ है ॥१२॥ जिस रोगीके स्थानमें अत्यन्त बर्तन फूटै अथवा पतित होवें तिसका जीवना दुर्लभ है ॥ १२७ ॥ यं नरं सहसा रोगो दुर्बलं पारमुञ्चति ॥ संशयं प्राप्तमात्रे. यो जीवितं तस्य मन्यते ॥ १२८ ॥ कथयन्नैव पृष्टोऽपि दुःश्रवं मरणं भिषक् ॥ गतासोबन्धुमित्राणां न चेच्छेत्तं चिकित्सितुम् ॥ १२९॥ जिस दुर्बल मनुष्यको शीवही रोग छोडि देवे, तिसके संशयको प्राप्त हुये जीवनको आत्रेयऋषि मानते हैं ॥ १२८ ॥ और बुद्धिमान् वैद्य मरनेवाले रोगीके भाईबंधुओंके प्रति श्रवणकरनेमें For Private and Personal Use Only
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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