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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (१७८) अष्टाङ्गहृदयेऔर सोलहमें वर्षमें नव अंगुलोंका नेत्र बनाना, और बीशमें वर्षसे उपरांत वर्षोंमें बारह अंगुलोंका नेत्र बनाना और इन पूर्वोक्तोंमें जो मध्यके वर्ष रहे हैं तिन्होंमें देखकर वैद्य पिचकारीके नेत्रको बनावै ॥ ११॥ वयोवलशरीराणि प्रमाणमभिवर्द्धयेत् ॥ स्वाङ्गुष्ठेन समं मूले स्थौल्येनाये कनिष्ठया ॥१२॥ अवस्था, वल, शरीर, इन्होंको विचार कर वैद्य नेत्रके प्रमाणको बढावै और मूलमें अपने अंगुठाके समान मुटापेसे संयुक्त और अग्रभागमें अपने हाथकी छोटी अंगुलीके समान नली बनावै ॥ १२ ॥ पूर्णेऽब्देऽङ्गुलमादाय तदर्भाप्रवर्धितम् ॥ व्य ङ्गुलं परमं छिद्रं मूलेऽग्रे वहते तु यत् ॥ १३ ॥ पहले वर्षमें नेत्रगत एक अंगुलमात्र छिद्र होना चहिये छः वर्षातक पीछे सातमें वर्ष सवा अंगुलप्रमाण नेत्रका छिद्र करना,ग्यारहमें वर्षतक और बारहमें वर्ष डेढ अंगुलप्रमाण नेत्रमें छिद्र करना, पन्द्रह वर्षतक और सोलहमें वर्षों पौने दो अंगुलप्रमाणित छिद्र करना और सत्रहमें वर्ष में दो अंगुलप्रमाण नेत्रमें छिद्रकरना और अठारहे वर्ष सवा दो अंगुलके प्रमाणसे नेत्रमें छिद्र करना और उन्नीसमें वर्षमें ढाई अंगुलप्रमाणसे नेत्रमें छिद्र करना और वीसमें वर्षमें पौने तीन अंगुलके प्रमाणसे नेत्रमें छिद्र करना और एक्कीसमें वर्षमें तीन अंगुलप्रमाणसे नेत्रमें छिद्र करना,ऐसार छिद्र नेत्रके मूलमें होना चाहिये और नेत्रके अग्रभागमें ॥ १३ ॥ मुद्रं माषं कलायञ्च क्लिन्नं कर्कन्धुकं कमात् ॥ मूलच्छिद्रप्रमाणेन प्रान्ते घटितकर्णिकम् ॥१४॥ मूंग जिसमें प्राप्त होकर निकस जावे ऐसा छिद्र एक वर्षसे लगायत छः वर्षोंतक करना और सातमां वर्षसे लगायत ग्यारहमा वर्षतक उडदको बहनेके योग्य छिद्र बनाना और बारहमें वर्षमें मटरको बहनेयोग्य छिद्र बनाना और सोलहमें वर्षमें स्विन्नहुये मटरके बहनेके योग्य छिद्र बनाना और इक्कीसवें वर्षमें बेरको बहनेके योग्य छिद्र बनाना और मूलगत छिद्रके प्रमाणकरके प्रांतदेशमें घटिक हुई कर्णिका अर्थात् छत्रके आकारसे संयुक्त ।। १४ ॥ वाग्रे पिहितं मूले यथास्वं व्यङगुलान्तरम् ॥ कर्णिकाद्वितयं नेत्रे कुर्यात् तत्र च योजयेत् ॥१५॥ और अग्रभागमें वर्तिकरके आच्छादित और मूलमें यथायोग्य दो अंगुलोंके अंतरोंवाली कार्ण• काके युगल अर्थात् जोडेको मूलप्रदेशरूप नेत्रमें बस्तिपुटकी योजनाके अर्थ योजित करे ॥ १५॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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