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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मूत्रस्थानं भाषाटीकासमेतम् । (१७७) और खांसी, श्वास, प्रमेह, बवासीर, हिचकी, आध्मान रो!वाले और अल्पविष्ठावाले और शोजासे संयुक्त गुदावाले और भोजनको कियेहुये, बद्धोदर, छिद्रोदर,जलोदर रोगोंवाले॥१॥ कुष्ठी च मधुमेही च मासान् सप्त च गर्भिणी॥ आस्थाप्या एव चान्वास्या विशेषादतिवह्नयः॥६॥ कुष्ठ-मधुप्रमेही, सातमासोंतक गर्भिणी नारी ये सब निरूहबस्तिके योग्य नहीं हैं, जो निरूहणके योग्य हैं वेही अनुवासनके योग्य हैं और तीक्ष्णअग्निवाले विशेषकरके अनुवासनके योग्य रूक्षाः केवलवाता" नानुवास्यास्त एव च॥ येनास्थाप्यास्तथा पाण्डुकामलामेहपीनसाः॥७॥ रूक्ष और केवल वातकरके पीडित दोनों अनुवासनबस्तिके योग्य हैं. जो निरूहणबस्तिको योग्य नहीं हैं वे अनुवासनबस्तिकेभी योग्य नहीं हैं और पांडुरोग,कामला,प्रमेह, पीनस रोगोंवाले॥७॥ निरन्नप्लीहविड्भेदिगुरुकोष्ठकफोदराः॥ अभिष्यन्दिकृशस्थूलकृमिकोष्ठाढ्यमारुताः॥८॥ और अन्नके भोजनसे रहित और प्लीहरोग, विड्भेद, भारीकोष्ठ, कफरोग, उदररोग इन रोगोंवाले और कफवाला, कृश, स्थूल, कृमियोंकरके पूरितकोष्टवाले आत्यवातवाले ॥ ८ ॥ पीते विषे गरेऽपच्यां श्लीपदीगलगण्डवान् ॥ तयोऽस्तु नेत्रं हेमादिधातुदार्वस्थिवेणुजम् ॥ ९॥ विष और गरको पनेिवाले और अपचीरोगी, श्लीपदरोगी, गलगंडरोगी ये सब अनुवासनके योग्य नहीं है विरूह और अनुवासनबस्तियोंके सोनाआदि धातु, शीसमका काष्ठ, हाथीकी हड्डी, बांशकी बनी हुई ॥९॥ गोपुच्छाकारमच्छिद्रं श्लक्ष्णर्जु गुलिकामुखम् ॥ उनेऽब्दे पञ्च पूर्णेऽस्मिन्नासप्तभ्योऽङ्गुलानि षट् ॥१०॥ गायके पुच्छकी समान आकृतीवाली छिद्रसे रहित और सूक्ष्म और कोमल गोलीके समान तीक्ष्णमुखवाली नेत्र अर्थात् नली होनी चाहिये और पूर्णतासे रहित वर्षमें पांच अंगुलकी नेत्र करना और पूरे वर्षसे लेकर सातमें वर्षतक छः अंगुलोंकी नली करना ॥ १० ॥ सप्तमे सप्त तान्यष्टौ द्वादशे षोडशे नव॥ द्वादशैव परं विशात् वीक्ष्य वर्षान्तरेषु च ॥ ११॥ और सातमें वर्ष सात अंगुलिका नेत्र बनाना और बारहमें वर्षमें आठ अंगुलोंका नेत्र बनान For Private and Personal Use Only
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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