SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 186
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रस्थानं भाषाटीकासमेतम् । (१२३) साधकं हृद्तं पित्तं रूपालोचनतः स्मृतम् ॥ हस्थमालोचकं त्वस्थं भ्राजकं भ्राजनात् त्वचः ॥१४॥ साधक कहाता है, और दृष्टिमें स्थित होनेवाला पित्त रूपके ग्रहण करनेकी शक्तिवाला होनेसे आलोचक कहाता है, और त्वचामें स्थित होनेवाला पित्त त्वचाके प्रकाशित रूपवाला होनेसे भाजक कहाता है ॥ १४ ॥ श्लेष्मा तु पञ्चधोरस्थः स त्रिकस्य स्ववीर्यतः ॥ हृदयस्यान्नवर्याच्च तत्स्थ एवाम्बुकर्मणा ॥ १५॥ कफ पांचप्रकारका है तिन्होंमेंसे छातीमें स्थित होनेवाला कफ अपने वीर्यसे त्रिक अर्थात् पृष्ठाधार नामक अंगका अवलंबन करता है, और अनके वीर्यकरके हृदयका अवलंबन करता है, और अपने वीर्यकरकेभी हृदयका अवलंबन करताहै, और तिस छाती स्थानमेंही स्थित हुआ वह कफ पानकि कर्म करके ॥ १५ ॥ __ कफधाम्नां च शेषाणां यत्करोत्यवलम्बनम् ॥ अतोऽवलम्बकः श्लेष्मा यस्त्वामाशयसंस्थितः ॥१६॥ शेष रहे कफके स्थानोंको अवलंबित करता है, इस कारणसे वह कफ अवलंबक कहाता है और जो आमाशयमें संस्थित कफ है ॥ १६ ॥ क्लेदकः सोऽन्नसङ्घातक्लेदनाद्रसबोधनात् ॥ बोधको रसनास्थायी शिरःसंस्थोऽक्षतर्पणात् ॥ १७ ॥ वह अन्नके समूहको क्लेदित करनेसे क्लेदन कफ कहाता है. और रसके बोधनसे जीभमें रहनेबाला कफ बोधकनामसे विख्यात है और शिरमें रहनेवाला कफ इंद्रियोंको तृप्त करता है इस हेतुसे ॥ १७ ॥ तर्पकः सन्धिसंश्लेषात् श्लेषकः सन्धिषु स्थितः॥ इति प्रायेण दोषाणां स्थानान्यविकृतात्मनाम् ॥ १८॥ तर्पकनामसे विख्यात है, और संधियोंमें रहनेवाला कफ संधियोंके मिलापको करानेसे श्लेषक कफ कहाता है, ऐसे प्रायताकरके विकारको नहीं प्राप्तहुये दोपोंके स्थान प्रकाशित किये हैं ।। १८ ।। व्यापिनामपि जानीयात् कर्माणि च पृथक् पृथक् ॥ उष्णेन युक्ता रूक्षाद्या वायोः कुर्वन्ति सञ्चयम् ॥ १९ ॥ और सकल शरीरमें व्याप्त होनेवाले दोषोंकेभी कर्म पृथक् २ जानने, उष्ण गुणकरके युक्त हुये रूक्षआदि गुण वायुके संचयको करते है ॥ १९ ॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy