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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ( १२२ ) www.kobatirth.org अष्टाङ्गहृदये Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गत्यपक्षेपणोत्क्षेपनिमेषोन्मेषणादिकाः ॥ प्रायः सर्वाः क्रियास्तस्मिन् प्रतिबद्धाः शरीरिणाम् ॥ ७ ॥ और गति - अपक्षेपण - उत्क्षेपण - निमेष - उन्मेषण - इनआदि क्रिया विशेषकरके इस व्यानत्रायुमें बंधी हुई है प्रायः इसमें शरीर धारियोंकी क्रिया बँधी है ॥ ७ ॥ समानोऽग्निसमीपस्थः कोष्ठे चरति सर्वतः ॥ अन्नं गृह्णाति पचति विवेचयति मुञ्चति ॥ ८ ॥ समान वायु अग्निके समीपमें रहता है, और चारों तर्फसे कोटमें विचरता है, और अन्नको ग्रहण करता है, पकाता है, और संहत हुये अन्नको पाकके अर्थ प्राप्त करता है, और विष्ठामूत्र के. द्वारा नीचेको निकासता है ॥ ८ ॥ अपानोऽपानगः श्रोणिवस्ति मेद्रोरु गोचरः ॥ शुक्रार्त्तवशकृन्मूत्रगर्भनिष्क्रमणक्रियः ॥ ९ ॥ अपानवायु प्रधानताकर गुदामें स्थित है, और कटि - बस्ति - लिंग जांघ में विचरता हैं,. और वीर्य - आर्तव - विष्ठा - मूत्र - गर्भका निकासना - इन क्रियाओंवाला है ॥ ९ ॥ पित्तं पञ्चात्मकं तत्र पकामाशयमध्यगम् ॥ पञ्चभूतात्मकत्वेऽपि यत्तेजसगुणोदयात् ॥ १० ॥ पित्त पांच प्रकारका है, तिन्होंमें पकाशय के मध्य में प्राप्त हुआ पित्त और पंचभूतोंवाला हो. भी तेज गुणके उदयसे ॥ १० ॥ त्यक्तद्रवत्वं पाकादिकर्मणानलशब्दितम् ॥ पचत्यन्नं विभजते सारकिट्टौ पृथक् तथा ॥ ११ ॥ के त्यागसे संयुक्त और पाक आदि कर्म करके अग्निशब्दवाच्य और अन्नको पकानेवाला और सार तथा मलको पृथक् पृथक् विभागित करनेवाला ॥ ११ ॥ तत्रस्थमेव पित्तानां शेषाणामप्यनुग्रहम् ॥ करोति बलदानेन पाचकं नाम तत् स्मृतम् ॥ १२ ॥ और हांही अवस्थित हुआ शेष रहे पित्तको बलके देनेकरके अनुग्रह करता है, वह पाचक पित्त कहाता है ॥ १२ ॥ आमाशयाश्रयं पित्तं रञ्जकं रसरञ्जनात् ॥ बुद्धिमेधाभिमानाद्यैरभिप्रेतार्थसाधनात् ॥ १३ ॥ आमाशय में स्थित हुआ पित्त रस धातुको रंजित करनेवाला रंजक पित्त कहाता है और हृदयगत जो पित्त है वह बुद्धि - मेवा - अभिमान इन आदिकरके अभिप्रेत प्रयोजनका साधनभूता होनेसे ॥ १३ ॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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