SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 1071
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (१००८) अष्टाङ्गहृदयेरोमहर्षः सुतिर्मू दीर्घकालानुबन्धनम् ॥ श्लेष्मानुबद्धबह्वाखुपोतकच्छर्दनं सतृट् ॥५॥ जहां इन मूसोंका वीर्य पडै और वीर्यसे लेपितहुये अंगोंसे जिस अंगको स्पर्शित करे, तहां दूषितहुए और पांडुभावको प्राप्तहुए रक्तके होजानेमें ॥ ३॥ ग्रंथिपै शोजा कोथ मंडल भ्रम अरूची शीतज्वर अत्यंतपीडा शिथिलपना कंप संधियोंका भेद ॥४॥ रोमहर्ष स्राव मूर्छा और दीर्घकालतक अनुबंधवाला और तृषाके संयुक्त और कफकरके अनुगत मूषिकपोत कृमियोंका वमन ये होतेहैं ॥१॥ व्यवाय्याखुविषं कृच्छू भूयोभूयश्च कुप्यति ॥ मूषेका विष सकल शरीरमें व्याप्त होके कष्टसाध्य हुआ वारंवार कुपितहोताहै । मूच्छांगशोफवैवर्ण्यक्लेदशब्दाश्रुतिज्वराः ॥ ६॥ शिरोगुरुत्वं लालासृक्छर्दिश्चासाध्यलक्षणम् ॥ और मू अंगमें शोजा वर्णका बदलजाना क्लेद शब्दका नहीं सुनना ज्वर ॥ ६ ॥ शिरका भारीपन और लारका आना, रक्तकी छर्दि ये असाध्यके लक्षणहैं ॥ . शूनबस्ति विवर्णीष्ठमाख्याभैर्ग्रन्थिभिश्चितम् ॥ ७॥ छुच्छुन्दरसगन्धं च वर्जयेदाखुदूषितम् ॥ और सूजीहुई बस्तिवाला और विवर्णहुये ओष्ठवाला और मूसाके समान कातिवाली ग्रंथियोंसे व्याप्त ॥ ७ ॥ और छुछुदरीके गंधके समान गंधवाले मूसाके विषसे दूषितालुये मनुष्यको त्यागे ॥ शुनः श्लेष्मोल्बणा दोषाः संज्ञां संज्ञावहाश्रिताः॥८॥ मुष्णन्तः कुर्वते क्षोभं धातूनामतिदारुणम् ॥ लालावानन्धबधिरः सर्वतः सोऽभिधावति ॥ ९॥ स्त्रस्तपुच्छहनुस्कन्धशिरोदुःखी नताननः॥ और कुत्तेके कफकी अधिकतावाले दोष संज्ञाको वहनेवाले स्त्रोतमें आश्रितहुये और ॥ ८ ॥ संज्ञाको नाशतेहुये धातुओंके अतिदारुणरूप क्षोभको करतेहैं, तब लारोंवाला अंधा और बधिरा कुत्ता सब तर्फको दौडताहै ।। ९ ॥ शिथिलहुई पुच्छवाला और ठोडी कंधा शिर इन्होंसे दुःखित और नीचेको मुखवाला कुत्ता होजाताहै ॥ दंशस्तेन विदष्टस्य सुप्तः कृष्णं शरत्यसृक् ॥१०॥ हृच्छिरोरुज्वरस्तम्भस्तृष्णामूर्होद्भवोनु च॥ इस कुत्तेसे दष्टहुये मनुष्यके अचेतनरूप दंश कालेरक्तको झिराताहै ॥ १० ॥ और हृदय तथा शिरमें पीडा ज्वर स्तंभ तृषा मू की उत्पत्ति होतीहै ॥ अनेनान्येऽपि बोद्धव्या व्याला दंष्ट्राप्रहारणः ॥ ११ ॥ कण्डूनिस्तोदवैवर्ण्यसुप्तिक्लेदज्वरभ्रमाः॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy