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________________ २२८० कर्णरोग कर्णरन्ध्र (२) दोनों प्रकार का कनफोड़ा ।जल कण मोरट | तथा स्थल कर्णमोस्ट । “जलस्थलभवः कर्ण मोरटः ।" सा० कौ० दूर्वाद्य तैल । कर्णरन्ध्र-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] कान का छेद।। कर्णरोग-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] कान का रोग । कान की बीमारी । कर्णज व्याधि । माधव निदान में दोषानुसार कान की बीमारी तीन प्रकार की लिखी है-(१) वातज कणरोग जिसमें शब्द होता है, अत्यन्त वेदना होती है, कान की मैल सूख जाती है, थोड़ा पीव बहता है और वात के कारण सुनाई नहीं पड़ता अर्थात् मनुष्य बहरा हो जाता है। (२) पित्तज कर्णरोग जिसमें लाल सूजन होती है, दाह होता, फट सा | जाता और उसमें पीली दुगंधित पीव बहती है। (३) कफज कर्णरोग में विपरीत सुनना । (कहे कुछ और सुने कुछ.), खाज होना, कठिन सूजन | और सफेद चिकनी राध बहना और थोड़ी पीड़ा इत्यादि लक्षण होते हैं। इसके अतिरिक्त सान्निपातिक कर्णरोग में उपयुक्त सभी लक्षण सम्मिलित रूप से होते हैं और अधिक दूषित वर्ण का स्राव होता है। वैद्यक में कान के रोगों की संख्या २८ लिखी है। सुश्रुतादि के अनुसार वे २८ प्रकार के कर्ण रोग यह हैं (1) कर्णशूल, (२) प्रणाद (कर्णनाद ) (३) बाधिर्य ( बहरापन), (४) कर्णश्राव, (५) कर्णकंडू, (६) कर्णगूथ, (७)कृमिकण (८) प्रतिनाह, (६-१०) दो प्रकार की कर्णविद्रधि, (११) कर्ण पाक, (१२) पूतिकर्ण, (१३) कषवेड, (१४, १५, १६, १७) चार प्रकार का कर्णाश, (१८, १९, २०, २१, २२, २३, २४) सात प्रकार का कर्णाबुद और ( २५, २६, २७, २८) चार प्रकार का कर्णशोथ । यथा कर्णशूलं प्रणादश्च बाधिर्य वेड एव च ।। कर्णस्रावः कर्णकंडू: कणगूथ स्तथैव च ।। कृमिकण: प्रतीनाहो विधिद्विविधस्तथा । कण पाक: पूतिकण स्तथैवाशश्चतुर्विधम् ॥ तथाबुदं सप्तविधं शोफश्चापि चतुर्विधः।। एते कर्णगता रोगा अष्टाविशतिरीरिताः। वै० निघ० सु० उ० २० अ० वि० दे० "कान"। कर्ण रोग चिकित्सा विधि-सोते समयकान में रुई लगाकर सोने से कर्ण सम्बन्धी बहुत से रोगों से बचने का उत्तम उपाय है । कानमें सर्वदा गुनगुनी औषधि टपकानी चाहिये । (१) अदरख, शहद, सेधानमक, कड़वा तेल पकाकर कान में डालने से कर्णशूल नष्ट होता है । (२)लहसुन, अदरख, सहिजन का रस, मूली का रस, केलि का रस इनका गुनगुना रस डालने से कर्णशूल नष्ट होता है। (३) समुद्रफेन के चूर्ण को अदरख, सहिजन, भांगरा और मूली के रस में मिलाकर गुनगुना कर कान में डालने से कान का दर्द दूर होता है । (४) काली सज्जी के बारीक चूर्ण कान में डालकर ऊपर से नीबू का गुनगुना रस निचोड़ने से कर्णशूल नष्ट होता है। कौड़ी का भस्म इसी तरह नीबू के रस के साथ प्रयोग करने से कर्णशूल नष्ट होता है। (६) आक के पत्तों के पुट में दग्ध किये हुये थूहर के पत्तों का रस गरम टपकाने से कर्णशूल शीघ्र दूर होता है । (७) क्षार तैल-नेत्रवाला, मूली सोंठ, इनका खार, हींग, सौंफ, वच, कूट, देवदारु, सहिजन, रसवत, कालानमक; जवाखार, सज्जीखार सेंधानमक, भोजपत्र, पोपलामूल, बायबिडंग, नागरमोथा समान भाग और मधु, शुक्क, विजौरा ओर केले का रस चौगुना लेकर यथाविधि तैल पाक कर कान में डालने से कणं चूल, कर्णनाद, बहिरापन, पूयत्राव, कर्णकृमि और मुख तथा दंत रोग का नाशक है । (८) दाादि तैल-दारुहल्दी, दशमूल, मुलहठो, केले का रस, कुट, वच, सहिजन, सौंफ, रसवत, देवदारु, जवाखार, सज्जी, विड़नमक, सेंधानमक इनके कल्क में तिल तेल मिलाकर यथाविधि पाक कर कान में डालने से कर्णशूल, कर्णनाद, बधिरता, पूतिकर्ण, कर्णचवेड, जन्तुकर्ण, कर्णपाक, कर्णकंड, कर्णप्रतिनाह, कर्ण शोथ और कर्णस्राव का नाश होता है। (6) भांग के पत्तों के रस में मीठे तेल को पकाकर कान में डालने से गर्मी और सर्दी से उत्पन्न कर्णशूल नष्ट होता है। (१०) लाख के क्वाथ में तैल पाक कर डालने से कर्णस्राव और
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
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