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________________ कर्णरोग २२८१ कर्णविटक uy कान का दर्द दूर होता है। शम्बूक तैल-घोंघे का गुण-यथोचित अनुपान से यह हर प्रकार के जीव तेल में पकाकर कान में डालने से कान का ____ कर्ण रोगों को नष्ट करता है । र० र० स० २३ मासूर दूर होता है। करमकला के पत्तों का रस सिरका अथवा गन्दना के रस में मिलाकर गुनगुना कर्णल-वि० [सं० त्रि०] जो अच्छी तरह सुन सके । कर कान में टपकाने से कान में जमा हुआ रुधिर ____ कानवाला । प्रशस्त श्रवणशक्रिबिशिष्ट ।। घुलकर निकल जाता है । (११)पके हुये इंद्रा- | कर्णलतिका, कर्णलता-संज्ञा स्त्री० [सं. स्त्री० ] यण के फल के छिलके मीठे तेल में पकाकर कान (Lobe of the ear ) कान की लौ । में डालने से वधिरता नष्ट होता है। (१२) कर्णपाली । हे० च०। पपड़ी खैर और ख़तमी पीसकर लेप करने से कर्णवत्-वि० [सं० वि०] (१) बड़े कानवाला । गर्मी से उत्पन्न कर्ण का कड़ापन दूर होता है। दोघंकर्णविशिष्ट । (२) कानवाला । कर्णयुक्त । कर्णरोग में डाक्टरी औषधियां-कर्णशूल | (३) कोमल शाखा वा कोलक विशिष्ट । (Otalgia) स्ट्याफिसेमाइ, केन्याराइटोज़, कर्णवंश-संज्ञा पुं० [सं० पु.] मंच । बाँस का डिजिटेलिस, आलियम् प्रालिप, प्रोपियम्, अस्पा- | ___ऊँचा ठाट | हारा। इटिस-एकोनाइट, Otorrhaea-एलम्,बोरिक कर्णवर्जित-वि० [सं० त्रि०] () जिसे कान न एसिड, बोरो ग्लोसरीन, बाल्सम् पेरुविएनम्; क्या ___ हो। कर्णहीन । (२) बहरा । बधिर । डमियाई सलफास, श्राइडोफार्म, लाइकरसोडि संज्ञा पुं॰ [सं० पु० ] साँप । सर्प । कोर्राट, प्लम्बाई एसिटास, आलियम् महुई, टैनिन । श. च०। ग्लीसरीन ड्राम कर्णवश-संज्ञा पुं० [सं० पु.] एक प्रकार की बोरिक एसिड १० ग्रेन मछली जो वृत्ताकार गोल, कालेरंग की और प्रायढोफार्म १ ग्रेन सेहरेदार होती है। केम्फर ५ ग्रेन __ गुण-इसका मांस दीपन पाचन, पथ्य, स्पिरिट-रेक्टिीफाइड । औंस बलकारक और पुष्टिकारक है । वैद्यकम् । थाइमोल ५ ग्रेन | कर्णवर्द्धन-संज्ञा पुं॰ [सं०] कान का एक रोग। कर्णरोग प्रतिषेध-संज्ञा पुं० [सं० पुं०] (1) कर्णवात-संज्ञा पु० [सं० पु.] अस्सी प्रकार के ___ कर्णरोग की चिकित्सा । (२) सुश्रुत-संहिता का वातरोगों में से एक। ___एक अध्याय । कर्णवाते च वाधिर्य महाशूलेन पीड़नम् । कण रोग विज्ञान-संज्ञा पुं॰ [सं० को० ] कर्णगत | अहो रात्रं च दु:खस्या देहशोषः प्रकीर्तितः।। व्याधि का निदान । कान के रोगों का निदान ।। कण राग हर रस-संज्ञा पु० [सं० पु.] ठक्क नाम अर्थात्-इसमें बहिरापन कान में भयानक का रसौषध जो कर्णरोग में लाभदायक है। व्यथा तथा पोड़ा और देह में शोष होता है। कर्णवात हर तैल-संज्ञा पुं० [सं० की.] एक योग-हीरे की भस्म, वैक्रान्त भस्म, विमल प्रकार का आयुर्वेदीय योग(रूपामाखी) भस्म, नीलाथोथा, सीसा भस्म, शेफाम्लतिलकैरण्ड कुमारी कुलिमिश्रितैः । शुद्ध मीठा तेलिया, शुद्ध पारा, शुद्ध गंधक और सोनामक्खी भस्म समान भाग लेकर प्रथम पारे ततो निरुहो वातघ्न: कल्कस्नेहै निरुह्यते ॥ और गंधक की कजली करे, फिर अन्य औषधियाँ कर्ण वातं निहन्त्याशु वाधिर्यं च विनाशयेत्। मिलाकर लहसुन, अदरख, सहिजन, अरनी की कणेविट्-संज्ञा [सं० स्त्री० ] कान का मैल । खूट । जड़ और केले के रस की पृथक ७-७ भावना कर्णमल । ( मनु०) देकर खूब घोटें। | कर्णविटक-वि० [सं० त्रि० ] जिसकी कान में मैल मात्रा-२-३ रत्ती। फा०६६ । हो।
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
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