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________________ करेगा २२५३ करेरुमा Linn. । कैपोरिस ज़ेलैनिका C. Zey- - इसके फल की तरकारी बनाई जाती है । भाव lanica, Linn. कैडेवा हारिडा Cadaba. मिश्र ने इसीलिये इसका शाक वर्ग में उल्लेख Horrida Linn.- ले करेरुका, अरुदण्ड- किया है। लोगों का विश्वास है कि पार्द्रा नक्षत्र ते। हरण डोडी वाघाटी, भगाटी-मरा०, द०। के पहले दिन इसे खा लेने से साल भर पर्यन्त करबिल, करविला-पं० ।करलुर करलुरा-(अवध) फोड़ा, फून्सी होने का डर नहीं रहता और न मूल (इटावा)। कालुकेर, वाघांटी-बम्ब० । सादि विषधर जन्तुओं का विष व्याप्त होता है । गोविंदी-मरा०। कररुपा के पत्ते पीसकर घाव पर भी रखते हैं। करेरुआ की जड़-भगाटी की जड़; भटाटी उकवत पर भी इसके पत्ते बाँधते हैं। मूलत्वक की जड़-द। अलंदय-मल.| श्रादंडवेर-ता० । को पीसकर जहरवाद फोड़े अथवा अन्य प्रकार के अरुदंड वेरु-ते। फोड़े पर लगाने से लाभ होता है। करीर वर्ग कररुपा के इतने स्वल्प गुण-प्रयोग देकर अब (N. O. Cappari diacece ) मैं पाठकों का ध्यान इसके एक ऐसे उपयोगी एवं चमत्कारी प्रयोग की ओर श्राकृष्ट करना चाहता उत्पत्ति स्थान-समस्त भारतवर्ष, विशेषतः हूं, जिसका मैं अाज बीस बर्ष से अनुभव कर दक्षिण भारत में यह बाहुल्यता से होता है। रहा हूं। यह वही प्रयोग है जो आजतक अनेकों औषधार्थ व्यवहार-पत्र, फल, मूल और पुरातन नीहात रोगियों का प्रशंसा-भाजन बन मूलत्वक् । चुका है । ऐसे प्लीहा रोगी जिन्हें छः-छः मास औषध- निर्माण-मूलत्वक क्वाथ-४ पाउंस पर्यन्त डाक्टरों के इञ्जक्शनादि विविध उपचारों मूलस्वक् को १॥ पाइंट जल में मंदाग्नि पर यहां से भी कोई लाभ न हुआ. वे इस दवा के प्रयोग तक कथित करें, कि एक पाइन्ट पानी शेष रह से स्वल्प काल में ही रोग-मुक्त हुये हैं। परन्तु यह जाय। ठंडा होने पर इसे छान कर रखें। स्मरण रहे कि जिसमें अनेक गुण होते हैं उसमें पत्रकाथ-उपयुक्र विधि के अनुसार प्रस्तुत कतिपय दोषों का रहना भी स्वाभाविक ही है। करें। इस भूमण्डलपर कोई ऐसा पदार्थ नहीं जो सर्वथा मात्रा-उन दोनों प्रकार के क्वाथों की मात्रा निदोषहों, क्योंकि यदि दोष न हो, तो निदोषताका १ पाउंस से ३ पाउंस पर्यन्त, चौबीस घंटे में हमें अनुभव ही नहींहो सकता । अस्तु; उन औषध ३-४ बार देवे । भी इसदोष से खाली नहीं रह सकती। जहाँ इसमें इसकी प्रतिनिधि स्वरूप विदेशीय द्रव्य- पुराने से पुराने अत्यन्त विवर्द्धित प्लीहा रोग को मूलत्वक् के लिए बिस्म्युथाई सबनाइट्रास और निर्मूल करने का गुण वर्तमान है, वहीं इसमें यह एसिड हाइड्रास्यानिड डिल, पत्र के लिये सोना । एक दोषभी है, कि इससे उन स्थल पर असह्य दाह होताहै । परन्तु यह दारुण प्राण-संहारक व्याधि के गुणधर्म तथा प्रयोग मुकाबिले में कुछ भी नहीं। अब नीचे इसकी वह आयुर्वेदीय मतानुसार प्रयोग-गिधि दी जाती है, जो मुझे एक साधु, डोडिका पुष्टिदा वृष्या रुच्या वह्निप्रदा लघुः । महात्मा से प्राप्त हुई थी । मैं भी उन्हीं के बताए अनुसार बिना किसी फेर-फार के इसका प्रयोग इंतिपित्त कफशोसि कृमिगुल्म विषामयान् ।। करता हूँ । यद्यपि इसकी कई बातों में मुझे स्वयं (भा० पू० खं० शा०व०६) संदेह है। उपयोग-विधि इस प्रकार हैअर्थात्-कोरुना पुष्टिकर, वृष्य, रुचिकारी, जठ. ___ बरबट के रोगी अर्थात् विवर्द्धित प्लीहा-रोगी राग्नि-वर्द्धक तथा हलका है । और पित्त, कफ, को सर्वप्रथम यह बतला दिया जाता है कि औषध बवासीर, कृमि, गोला और विष के रोगों को दूर रविवार या मंगलबार को बाँधी जायगी । और करता है। उससे पहले अर्थात् शनिवार या सोमवार की
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
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