SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 522
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ करेरुआ २२५४ रात्रि को उसे केवल सादी अर्थात् पीठी रहित घृत पक्क पूरी बिना किसी अन्य वस्तु यथा- दुग्ध तरकारी श्रादि के खानी चाहिये और दूसरे दिन प्रातःकाल शौचादि से निवृत्त होकर दातौन किये बिना वैद्य के पास श्राना चाहिये। यह श्रादेश कर दिया जाता है । वैद्य को चाहिये कि पहले से ही उक्त बूटी की ताजी जड़ ( न होने पर नवीन सूखी जड़ ही सही ) मंगा रखे और उस जड़ की छाल निकाल कर १० दाने काली मिर्च के साथ किसी कुमारी लड़की से थोड़ी पानी में पिसवाकर उसकी बारीक लुगदी तैयार करावे | फिर प्लीहा परिमाणानुसार एक परई ( मिट्टी का पका हुआ दीया के आकार का परन्तु उससे बड़ा पात्र) लेकर उसमें बिनौला कस-कस कर भर डालें और उसके ऊपर उक्त लुगदी की श्राध अंगुल मोटी तह चढ़ा दे । पुनः रोगी को चित्त लेटने को कहें और उन परई को उलट कर ठीक प्लीहा स्थल पर रखें और उसे किसी श्रंगौछे श्रादि को चौपतकर पीठके नीचे से लपेटकर खूब कसकर बाँधदे और रोगी से कहदे कि वह सोधा चित्त पड़ा रहे इधर-उधर न घूमे और न बंधन को ढीला ही करे। बस इसी प्रकार उसे तीन घंटे तक पड़ा रहने दें। औषध बांधने के १०-१५ मिनट उपरांत श्रौषध का प्रभाव प्रारम्भ हो जाता है, रोगी उक्त स्थल पर दाह का अनुभव करने लगता है, उसे ऐसा प्रतीत होता है, मानों वहाँ लाल अंगारा रख दिया गया हो । यही दशा निरन्तर दो घंटे पर्यंत बनी रहती है। इसके अनन्तर जलन क्रमशः न्यून होने लगती है । यहाँ तक कि तीसरे घंटे पर जाकर एक दम न्यून पड़ जाती है और पुनः रोगी को किसी प्रकार का कष्ट अनुभव नहीं होता । बस यही है - एक ओर रोगी का यंत्रणा काल और दूसरी ओर सदा के लिये दारुण रोग निवारक प्रयोग । तीन घंटे पूर्व किसी भी भाँति बंधन न खोलना चाहिये । श्रन्यथा जलन स्थायी रूप धारण कर लेगी। इस व्याधि से मुक्ति लाभ न होगा और दूसरी ओर व्यर्थ में और भी अधिक कालपर्यंत अनिवार्य दाह-यंत्रणा भुगतनी पड़ेगी ठीक समय के उपरांत बंधन खोल दें और रोगी को दातौन आदि से मुख प्रक्षालन की श्राज्ञा दें । करेरुआ इसके उपरांत यदि इच्छा हो तो उसे खिचड़ी श्रादि खाने को दी जा सकती है अथवा उसे गरम दूध पीने को दें । उक्त स्थल को पानी पड़ने से या पसीना आदि होने से बचाने का आदेश करदें । अन्यथा फफोला पड़ने की आशंका रहेगी । रोगी को चाहिये कि एक मास पर्यन्त गुड़, तैल, लाल मिर्च, भूने चने श्रथवा स्निग्ध, उष्ण, विष्टंभी, दीर्घपाकी एवं धारक पदार्थ के खाने-पीने से परहेज करे, नित्य हलके शीघ्रपाकी श्राहार करे । इससे मास पर्यंत कभी-कभी काले रंग का मलोत्सर्ग होता रहता है और प्लीहा क्रमशः अपनी पूर्व स्वाभाविकावस्था पर चली जाती है और रोगी अपने को स्वस्थ पाता है । इसका उपयोग केवल प्लीहा रोग पर होता है, ज्वरादि के लिये पृथक् चिकित्सोपचार करना चाहिये। रोगी की क्षमता का विचार करते हुये ७-८ वर्षीय शिशु से लेकर ८० वर्ष के बुड्ढे तक पर इसका प्रयोग किया जा सकता है। इस औषधोपचार के उपरांत एक मास पर्यंत यदि निम्न प्रकार से तैयार किये हुये मंदार-चार का भी उपयोग कराते रहें, तो सोने में सुहागे का काम हो । विधि यह है 1 मंदार क्षार - मंदार -पत्र और सेंधव लवण का चूर्ण लेकर एक मिट्टी की हाँडी में सर्व प्रथम मदार का एक पत्र रखकर ऊपर से सेंधानमक का चूर्ण थोड़ा सा बुरक दें। फिर मदार की एक पत्ती रखकर ऊपर से सेंधा नमक बुरकें । इसी प्रकार करते रहें, यहाँ तक कि ये हाँडी के मुख पर्यंत श्री जाँय । यदि थोड़ा बनाना हो तो इससे कम भी रख सकते हैं। इसके उपरांत हांडी के मुखपर एक ढक्कन रखकर उसके मुख को कपड़ मिट्टी कर भली प्रकार बन्द कर दें और गजपुट में रखकर कंडे की श्राग से फूंक दें। स्वांगशीतल होने पर निकाल कर नमक और पत्र भस्म का बारीक चूर्ण कर सुरक्षित रखें। इसमें से प्रातः सायं ६ माशे चूर्ण शहद के साथ चाटा करें। नव्य मत मोहीदीन शरीफ़ - प्रभाव मूल शामक ( Sedative ), पाचक, स्वेदाधरोधक ( An thidrotic ) और पत्र भी अंशतः पाचक
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy