SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 470
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ करना २२०२ करना है। बनाविया से आने के कारण इसे बनावी गुणधर्म तथा प्रयोग कहते हैं। आयुर्वेदीय मतानुसारपर्याय-करुणः-सं०, करना, कन्ना-हिं० । कफ वाय्वाम मेदोघ्नं पित्त कोपनञ्च । नारंज-१० । नारंग-फ्रा० । करुणोलेबुर गाछ, (राज. ३५०) कन्नालेबू-बं० । Citrus Decumana यह कफ, वायुनाशक, आमदोष नाशक, मेद नोट-शद्दीन ने मुरिदात हिंन्दी में इसे नाशक और पित्तवर्द्धक है। नारंगी लिखा है, जो सर्वथा प्रमादपूर्ण है। इसमें यूनानी मतानुसारकोई सन्देह नहीं, कि यह नारंगी सं सर्वथ प्रकृति-पीला छिलका और फूल प्रथम भिन्न वस्तु है। क्योंकि अंजुमन के संकलनकर्ता कक्षा में उष्ण और द्वितीय कक्षा में रूक्ष, अम्लत्व स्वयं नारंगी में यह लिखते हैं कि उसकी ईकार द्वितीय कक्षांत में शीतल एवं रूक्ष है। मतांतर संबन्धवाचक है। अर्थात् जिसका संबंध नारंग से से द्वितीय कक्षा में शीतल और प्रथम कक्षा में है। यह नारंजसे क्षुद्रतर एवं मधुरतर और अधिक रूक्ष है। भीतर का सफ़ेद छिलका और बीज सुस्वादु होती है । इसका छिलका सुगंधित प्रथम कक्षा में शीतल और द्वितीय कक्षा में रूत होता है। है। औरेसी के लेखानुसार कक्षा नीबू विविध नागरंगवर्ग शक्ति विशिष्ट है। तोहफ़ा के रचयिता के लिखिता नुकूल पीत त्वक् और पुष्प द्वितीय कक्षा में उष्ण (N. . Rutacea ) और रूक्ष है । अबु हामिद बिन अली बिन उमर उत्पत्ति-स्थान-भारतवर्ष । यह मलयद्वीपपुञ्ज समरकंदी रचित रिसालः प्राज़ियः व अशरवः फ्रेंडली और फिजी में स्वभावतः उत्पन्न होता है। में इसका उल्लेख मिलता है। करुण जंबूद्वीप से भारत में पाया है। इसे उष्ण हानिकर्ता-अम्ल और विशेषतः नीहार भक्षण प्रधान देश में अधिक लगाते हैं। भारत तथा करने से यकृत निर्बल होता है और शीतल ब्रह्मा में यह अधिक होता है। किंतु दाक्षिणात्य आमाशय शिथिल पड़ जाता है। एवं बंगदेश की अपेक्षा आर्यावत्तं में यह कम दर्पघ्न-शर्करा एवं मधु । मिलता है। प्रतिनिधि-बिजौरा (कन्ना बिजौरे से अधिक औषधार्थ व्यवहार--फल त्वक् का बाहरी लतीफ़-नरम पतला है)। हिस्सा, फलत्वक् तैल, पक्क फल स्वरस, पत्र और मात्रा-बीज २। मा०। पुष्प प्रभृति। गुण, कर्म, प्रयोग-शर्करा मिश्रित कन्ने का औषध-निर्माण-(१) करुण फल त्वक़् रस मनोल्लासकारी है। यह पित्त प्रकोप को शमन तैल। करता, रनोद्वेग को लाभ पहुँचाता, पित्त का मल , प्राप्त विधि-करने के छिलके को दबाने से या मार्ग से उत्सर्ग करता और पित्त का प्रवर्तन भी भभके में अर्क खींचने से उसमें से एक प्रकार का करता है । यह मद्यपानज खुमार को भी मिटाता तेल निकलता है, जो बहुत गुणकारी होता है । है। यह पैत्तिक ऊष्म व्याधियों को लाभकारी है कभी इस प्रकार इसका तेल तैयार करते हैं कि एतद्गत अम्लता में एक प्रकार की पिच्छिलता इसके ताजे पीले छिलकों या फूलों को तिज-तैल होती है जो उरोजात नजला ( नजलात सीना) में डालकर धूप में रखते हैं । एक सप्ताह के बाद एवं कास के लिए सात्म्य है। विशेषतया उस उन्हें निकालकर पुनः नए फूल छिलके डाल रखें। समय जब इसके फाँकों के सफेद छिलके को बीच तीन सप्ताह तक ऐसा करते रहें। इसके बाद में से चीरकर बीज निकाल कर और थोड़ी सी छानकर रख लेते हैं और समयानुकूल इसका | खांड बुरक कर आग पर रख देवें, कि दो-तीन यथाविधि सेवन करते हैं। जोश आ जाय । फिर इसे चूसें। नाशते की
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy