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________________ एफिड्रा एफिड्रा एफिड्रोन पाई जाती है । यही नहीं, अपितु सहसा अधिक वृष्टि हो जाने से एफिड्रीन की,औसत मात्रा घट जाती है। (४) ऋतु भेद-एफिड्रोन को मात्रा मई महीने से घटना प्रारम्भ होती है, यहाँ तक कि अगस्त अर्थात् वर्षांत में जाकर इसको मात्रा सबसे अधिक कम हो जाती है। इससे प्रागे पुनः क्षारोद की मात्रा बढ़ना शुरू होती है और शरद अर्थात् अक्टबर-नवम्बर में जाकर यह चरम सोमा को पहुँचती है । इसके उपरान्त पुनः इसका क्रमशः हास होने लगता है। (५) संग्रह-हवा में भली भाँति सुखाकर | और सूखे स्थान में रखे हुये एफिड़ा में एफिड्रोन की मात्रा चाहे वह कितना ही दिन रखा रहे, नहीं घटती । बाद प्रदेश और श्राद्र वायु-स्पर्श से इसके वीर्य का हास होता है । अस्तु, शरद ऋतु में एफोड़ा के कांडों को संग्रह कर छाया में सुखाकर बर्तन का मुख ढंक कर उसे शोत,वायु और प्रार्द्रता रहित प्रदेश में रखते हैं। व्यवहारोपयोगी अंग-जड़ और शाखाएँ तथा फल । नोट-इसके पत्रावृत, छोटे-छोटे कांड ही वीर्यवान होते हैं । अस्तु, उन्हीं को चूर्णकर काम में लाना चाहिये। औषव-निर्माण-एफीडा के पौधे का सत्व(1) एफीडोन वा (२) स्युडो-एफीड्रोन और • (३) पौधे का चूर्ण । मात्रा-४ रत्तो से १५ रत्ती तक, किसो-किसो के मत से ५ रत्तो से ८ रत्ती तक। (४) काथ-१ तोला एफीड्रा को जौकुट कर एक सेर पानी में मंदाग्नि पर कथित करें और अर्द्धावशेष रहने पर वस्त्र-पूतकर बोतल में भर रखें। मात्रा-२॥२॥ तोला की मात्रा में दिन में तीन बार सेवन करें। (५) सुरा-घटित रसक्रिया (Alcoholic extract ) वा टिंक्चर और (६) एफीडीन चक्रिका ( Ephedrine tabloids ) इत्यादि । डाक्टरगण प्रायः इसके सत-एफीड्रीन का ही व्यवहार करते हैं । परस्मरण रहे कि इसके पंचांग का चूर्ण इसके सत्व से कहीं अधिक गुणकारो है, जैसा कि आगे उल्लख होगा । देशी कंपनियाँ अब इसका शर्बत (Syrup) एवं प्रवाही सत्व (Liquid extract) भी प्रस्तुत करने लगी हैं। भारतीय एफीड्रा द्वारा प्राप्त एफीड्रीन और स्युडो-एफीड्रीन नामक सत्व के प्रभाव इसके अन्वेषण के उपरान्त लगभग सन् १८८७ ई० में रासायनिक दृष्टिकोण से एफीडीन की ओर बहुत ही ध्यान दिया गया. पर इसके कनोनिकाविस्तारक प्रभाव के सिवा, जिसकी सूचना जापानी अन्वेषक नेगी ( Nagai) ने दी, इसके प्रभाव के संबंध में और अधिक उन्नति नहीं हुई । सन् १६२४ ई० में चेन (Chen) और श्मिट (Schmidt) ने सन् १६२४ ई० में एफोड्रोन के औषधीय गुणधर्म विषयक अपने पत्र प्रकाशित कराये और एड्रोनेलीन से इसके निकट इन्द्रिय-व्यापारिक एवं शिनिकल-संबंध का प्रतिपादन किया। एफीड़ा के भारतीय भेदों द्वारा प्राप्त एफीड्रोन और स्युडो-एफीड्रोन नामक सत्वों को क्रिया का लेखक और उसके सहयोगियों द्वारा पूर्ण ज्ञान प्राप्त किया जा चुका है । उक्त एफीड्रीन का प्रभाव चोनो पोधे द्वारा प्राप्त एफीड्रोन के सर्वथा समान पाया गया, जिसका विविध प्रयोगकर्ताओं द्वारा विस्तृत अध्ययन किया जा चुका है। पर स्युडो-एफीड्रोन की ओर बहुत ही कम ध्यान दिया गया है। चूकि यह क्षारोद एफीड्रा के भारतीय भेदों में प्रचुर परिमाण में पाया जाता है। इसलिये लेखक तथा उसके सहकारियों ने इसका सावधानतया अध्ययन किया । (६० डू. ___ एफीड्रोन और स्युडो-एफीडीन के प्रभावभेद-संकलित प्रायोगिक नोटों से यह स्पष्ट है कि स्युडो-एफीड्रीन की क्रिया का एफीड्रीन की क्रिया से निकट सादृश्य है । दोनों क्षारोद यकृत से अपरिवर्तित दशा में ही उत्सर्गित हो जाते हैं और अपना साधारण प्रभाव उत्पन्न करते है; चाहे उन्हें ( Mesenteric vein ) में
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
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