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________________ २०१० कदली पूर्वबंग और दाक्षिणात्य मलावार उपकूल में केला बहुत लगाया जाता है। पहाड़ी, कोकनी, जंगली और बागी, छोटे, बड़े, हरे वा पीले छिलके के विचार से भारतीय केला| नाना प्रकार का होता है । कहा है माणिक्य मामृत चम्पकाद्या भेदाः कदल्या बहवोऽपिसन्ति । भा० अर्थात्-माणिक्य, मर्त्य, अमृत और चम्पक आदि केले को अनेक जातियाँ होती हैं । धन्वन्तरीय निघण्टु में कदली और काष्ठ कदली इन दो भेदों का और राजनिघण्टु में कदली, काठ-कदली, गिरि कदली और सुवर्ण मोचा, इन चार भेदों का उल्लेख पाया जाताहै। इसकेसिवा अधुना नाना स्थान में नाना प्रकार का केला होता है। श्रासाम प्रदेश में यह पन्द्रह प्रकार का केला जन-साधारण के निकट सुपरिचित है। पाठोया, जेपा प्राठिया, भीमकला, कनकधोल, बरस्मानि, छेनिचंपा, मनुहर, भोट् मनुहर, सिमुल मनुहर, पूरा, मालभोग, बस्ट-मानि, बनकला, जाहाजि और दाघजोया, बंगाल में रामरम्भा, अनुपान, मालभोग, अपरिमर्त्य, मर्त्यमान, चम्पक, चीनीचंपा, कन्हाईबाँसो, धीया, कालीबऊ, कांठाली, प्रभृति कई जाति के केले सर्वापेक्षा उत्कृष्ट रहते हैं। इनमें प्रथम चार पहली जेणी, द्वितीय चार दूसरी श्रेणी और तृतीय तीन तीसरी श्रेणी के केले हैं। मर्त्यमान को चाटिम वा मर्तवानो केला भी कहते हैं। संस्कृत में मर्त्य नाम से जिस कदली भेद का उल्लेख हुआ है, वह यही है । संस्कृत का चंपक चंपा नाम से विख्यात है इन सबमें विलकुल वीज नहीं होता। कांठाली जाति के अन्यान्य फलों में भी वीज न रहने पर भी जिसका नाम शुद्ध कांठाली प्रचलित है। उसमें भी बहुत दिन तक एक स्थान पर रहने से वीज पड़ने लगता इसके सिवा मदनी, मदना, तुलसी, मनुवाँ, रङ्गवीर, प्रभृति कई जाति के केलों में से किसी किसी में थोड़ा वीज होता है और किसी किसी में बिलकुल दिखाई नहीं देता, बंग देश में नाना प्रकार के बीजू केले होते हैं। इनमें यथेष्ट बीज रहने पर भी मिष्टता बढ़ जाती है। यशोहर में 'दगे' नामक एक प्रकार का बीजू केला होता है । इसका शर्बत, बहुत अच्छा होता है। कलकत्ते के निकटवर्ती स्थानों में 'डोंगरे' नामक जो बीजू केला, उपजता है, उसका फल खाया नहीं जा सकता, किन्तु मोचा अत्यन्त सुस्वादु लगता है । मोचे के लिये ही इसे लगाया जाता है 'सोया' नामक बीज केला के रस से भाँति भाँति के नेत्र-रोग श्राराम होते हैं । 'काँच' केला, 'कच्चा' केला, 'अनाजी' केला, प्रभृति केला 'काँच' केला की जाति के हैं। इस श्रेणी में नाना प्रकार के केले देख पड़ते हैं। पकने पर यह सुमिष्ट लगता है। पर तरकारी में ही अधिक व्यवहृत होता है। किसी ने इसे कच वा कच्छ भी लिखा है। क्योंकि इसे कच्छी पकाकर खाते हैं। यह अन्य केला की अपेक्षा बहुत बड़ा, यहांतक कि एक बित्ता तक लम्बा होता है । यह त्रिकोणाकार, बेमज़ा, चिपकता हुआ और फोका होता है । काँच केले को अंगरेजी में 'मुसा पाराडिसिका' (Musa l'aradisica) कहते हैं । 'काठाली' केले को कच्चा भी खाते हैं। इसका नाम 'ठा' केला है। अतः कांठाली जातीय केले को 'ठा' केला कह देते हैं। यह कंठालो जातीय 'कन्हाईबाँसो' केला कोई एक फुट से भी अधिक लम्बा होता है। और 'कालीबऊ' बहुत मोटा होता है। घीया कांठानी से घृतकी भाँति सुगंध निकलती है । यह उष्ण दुग्ध में डाल देने पर मक्खन की भांति घुलता है। पकने पर कांठाली केले का रंग कुछ पीला पड़ जाता है और चाटिम पोताभ पाता है। किंतु चाटिम के ऊपर फुटको-जैसे दाग़ उभरते हैं । चंपा केला पकने पर घोर पीत वर्ण का होता है। कांठाली परिपुष्ट होने पर कुछ चौ पहल तथा टेढ़ा, चाटिम गोल एवं सोधा अोर चंपा केला गोल और मोटा होता है । लाल केले को सिंदूरिया या चोना केला कहते हैं। मर्त्यमान और कांठाली केले का उद्भिज्ज शास्त्रोक्र नाम 'मुसा सापीण्टम्' (Musa sapientum) है। बंगाल में कांठालो जाति के केले का गूदाशस्य कुछ कड़ा होता है। पर 'मय॑मान' जातिवाले का शस्य अधिक श्वेत एवं मक्खन की तरह
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
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