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________________ कदली कोमल तथा 'चमक' जातिवाले का ईषत् श्रम्लरसयुक्त, सुगंधित एवं फल के मध्य पीताभ वर्ण होता है। कांठालो के फल का छिलका मोटा और चम्पा का पतला होता है । बंगाली मर्त्यमान 1 केले का ही अधिक श्रादर करते हैं । किंतु इस देश के युरोपीय प्रवासी 'चंपा' केले को अच्छा समझते हैं । कांठाली और कांच केले का व्यवहार अधिक है । २०११ दाक्षिणात्यले हिंदीगुल प्रदेश के पर्वत और वन में साधारणतः जो केला मिलता है उसे अँगरेजी में 'मूसा सुपर्बा' (Musa Superba ) कहते हैं । बेसिन प्रदेश का केला सुगंधिविशिष्ट होता है । भड़ोंच में यह प्रचुर परिमाण में उपजता है । नेपाल में होनेवाले केलों को 'नेपाली केला' वा 'अरटी' (Musane palensis) कहते हैं । मद्रास में होनेवाले, केलों में 'रसखली' नाम का केला सर्वोत्तम होता है । 'नण्डो' जातीय केले काशस्य अत्यंत कड़ा होता है । पर मद्रास के लोग इसे ही उत्तम समझते हैं और पाल डालने के उपरांत पकने पर बेचा करते हैं। 'पाछा' बहुत लंबा होता है । पर पुष्ट होते ही झुक पड़ता है । इसका हरापन पकने परभी नहीं बदलता । 'पेबेल्ली' केला मीठा होता है । परन्तु रंग ख़ाकी देता है । 'सेबेली' संज्ञक केला बहुत बड़ा होता और लोहित वर्ण दिखाई देता है । इसके अतिरिक्त बंथा, बंगला जमेई पे, सेरबा, जेन्नपान्नियान, पिदीमोथा प्रभृति कई दूसरी श्र ेणी के भी केले उपलब्ध होते हैं । मर्त्यमान केला चट्टग्राम और तेनासरिम प्रदेश बहुल परिमाण में उत्पन्न होता है। उक्त दोनों प्रदेश के दक्षिण मर्तवान उपसागर है । अस्तु, किसी किसी के कथनानुसार इसी उपसागर से प्रथम भारत में उक्त केले के थाने के कारण इसका 'मर्त्यमान' नाम पड़ा है । पर 'म' नामक कदली ही 'मर्त्यमान' केला कहाती है । बंबई में नौ प्रकार का केला होता है - बसरई, मुखेली, तांबडी, रजेजी, लोखसड़ी, सोनकेली, बेसली, करञ्जेली और नरसिंही। इनमें तांबड़ी केला लाल होता है । यहाँ कोकनी केला अत्यन्त में कदली सुस्वादु होता है । यह खसता होता है। इसके गूदे को सुखाकर भी बेचते हैं । r ब्रह्मदेश में पीत एवं स्वर्ण वर्ण नाना प्रकार का केला देख पड़ता है । सिंगापुर, मलय र भारतसागरीय द्वीपपुज में प्रायः ८० प्रकार के श्राहारोपयोगी केला उपजाते हैं । इसमें बहुत से वृहदाकार और सुगंधि विशिष्ट होते हैं । 'पिस्यांटिम्बाना' नामक केला लाल होता है । इसे वहाँ के लोग 'तामाटे' या 'कांकडा' केला कहते हैं । 'विस्यां मुलुत बेबेक' जातीय केले के तल में कुछ छिलका वक्रभाव से हंसकी चोंच जैसा निकल पड़ता है । 'पिस्यां राजा' को राजा केला कहते हैं । 'पिस्यासुसु' दूधिया केला कहलाता है । इस प्रकार के दूसरे केले का नाम सोनकेला है । शेषोक तीनों प्रकार के केले 1 श्रुति सुन्दर, सुमिष्ट और सुगंधि विशिष्ट होते हैं । ranीप में 'पियां टण्डक' नामक एक प्रकार का केला होता है । इसकी लंबाई प्रायः दो फुट होती है । कदाचित् बंगाल में इसे कन्हाईबांसी कहते हैं । यद्वीप में एक प्रकार का और केला होता है। इसके एक वृक्ष में एकही फल लगता है । अन्यान्य वृक्षों की भाँति उक्त मोचे के साथ कांड से नहीं निकलता, वह कांड के भीतर ही पका करता है । सम्पूर्ण पक जाने पर कांड फट जाता है। वह इतना बड़ा होता है कि एक फल से चार मनुष्यों का पेट भली भाँति भर सकता है । उपर्युक्त केलों को छोड़कर यवद्वीप में जो अन्य कांठाली या मर्त्यमान केले उत्पन्न होते हैं, उनमें बीज पड़ते हैं। इस श्रेणी के केलों को उस देश में 'पिस्यांबुट्ट' कहते हैं। फिलिपाइन द्वीप के पहाड़ी प्रदेश में उपजनेवाला केला इतना बड़ा होता है, कि एक मनुष्य को उसे उठाकर ले चलने में बोझ जान पड़ता है। मलयद्वीप के साधारण केले की अँगरेजी वानस्पतिक संज्ञा ( Musa glanea ) है । मारिशस द्वीप में गुलाबी रंग का मिलनेवाला har 'मुसा रोजेशिया' ( Musa rosacea ) कहलाता है ।
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
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