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________________ क़त रान १६४७ क़त रान (दवाली) में उपकार होता है। परन्तु उक्त लाभार्थ इसका प्रलेप श्रेयस्कर होता है । क्योंकि इसका भक्षण निरापद नहीं है । थोड़ी मात्रा में इसके सेवन से जलोदर नष्ट होता है । इसके मर्दन से जूएँ ओर जमजूएँ मर जाती हैं। इसके लगाने से वृश्चिक विष और शृंगयुक्त साँप का विष उतर जाता है । इसे मृत शरीर या शव पर लगाने से न मांस विकृत होता है, न उसके अंगो पांग ही अलग अलग होते हैं। कंड खाज आदि पर इसका लेप गुणकारी होता है। इससे कुत्ते श्रादि चतुष्पद जीवों की खुजली भी जाती रहती है। इसकी गंध से कीटादि पलायन हो जाते हैं । बारहसिंगे की चर्बी पिघला कर उसमें इसे मिला कर शरीर पर मलने से कीट पतंगादि पास नहीं आते । इन्न ज़हर के कथनानुसार यदि कुष्ठी इसे सदैव चाटा करे, तो वह रोग मुक्त हो जाय । इसे पशमीने के भीतर रखकर यदि स्त्री अपने हाथ में ले लेवे, तो भ्रण अविलंव पतित हो जाय । यदि थोड़ा सा क़तरान च्यूटियों के बिल में डाल दिया जाय, तो वे मर जायें । (ख. अ.) . टार की फार्माकालानी क़तान के गुणधर्म तथा प्रभाव . वाह्य प्रभाव उड टार ( Wood tar) गुणधर्म में तारपीन तैलवत्, किंतु तदपेक्षा निर्बलतर होता है। इसमें क्रियोजूट, फेनोल, तारपीन तैल प्रभृति उपादान की विद्यमानता के कारण यह पचन निवारक एवं ( Vascular stimulant) प्रभाव करता है । यद्यपि यह इतना उग्र नहीं है कि इससे त्वचा पर छाले पड़ जॉय । तथापि इसके अभ्यंग से कभी-कभी उग्र प्रदाह उत्पन्न होकर, स्वचा पर फुन्सियाँ निकल आती हैं, विशेषतः घन रोमावृत्त स्थलों पर । वातनाड़ियों पर इसका अवसादक प्रभाव होता है । इसके चिरकालीन प्रयोग से मुंह पर प्रायः अतीव कष्टप्रद युवानपिडिकाओं के निकलने की बहुत सम्भावना रहती है, जिन्हें डाक्टर हेब्रा (Hebra) के शब्दों में टार एक्नी (कत्रान जनित मुखदूषिका ) कहते हैं। आभ्यंतर प्रभाव इससे अपाचन विकार हो जाता है। इसके अधिक मात्रा में सेवन करने से कारबोलिकाम्ल जनित विषाक्ता के लक्षण उपस्थित हो जाते हैं अर्थात् इससे उदर और सिर में कठिन वेदना होती है, वमन होता है और मूत्र का रंग काल हो जाता है । यह अभिशोषित होकर रक्राभिसरण में मिल जाता है और उत्सर्ग काल में वायुप्रणालीस्थ श्लैष्मिक-कलागत चिरकालानुबन्धी शोथ पर संक्रमण विरोधी ( Disinfectant) और जीवाणुहर ( Deodorising) प्रभाव करता है और स्वेद स्रावाधिक्य को रोकता है तथा श्लेष्म स्राव को सुगम बनाता है। डॉक्टर येत्रो (Yeo) के अनुसार इसे सू घने ( Inhalation ) वा छिड़कने ( Spray ) और आंतरिक उभय विध प्रयोग करने से उक्त प्रभाव होते हैं । श्रामयिक प्रयोग वाह्य-टार वाटर क्षत और शिथिल व्रणों के लिये उत्तेजक द्रव है। विचर्चिका जैसे चिरकारी चर्म रोगोंके लिये इसका मरहम उत्कृष्ट अनुलेपनौषध है । चिरकारी पामा ( Eczema) में भी इससे उपकार होता है। स्वचा के रोगों में टार सोप (साबुन क़त्रान) का उपयोग भी लाभकारी होता है। यह कई प्रकार का होता है। इनमें से विर्च टार एण्ड सल्फर सोप (Birch Tar and|Sulphur soap) या इथियोल एण्ड टारसोप अधिक उत्तम होता है। आभ्यंतर श्लेष्मानिःसारक रूप से ऊड टार (Wood Tar ) को केवल जीर्ण कास, वायु प्रणालो विस्तार और शारदीय कास में प्रयोगित करते हैं । यह शर्बत, कैपशूल्ज और वटिकारूप में सेव्य है । परन्तु इसे कैप्शूल्ज में देना श्रेयस्कर होता है। सिरप ऑफ टार और सिरप श्राफ वर्जिनियन् प्रन के योग से निर्मित एपोमॉर्फीन का अवलेह चमत्कारी कासन है। टार वाटर ( अर्क क़त्रान ) और लाइकर पाइसिस एरोमेटिकस, (सुगंधित क़तानार्क) भी उपयुक्त लाभ के लिये व्यवहृत होते हैं।
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
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