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________________ । कतरान कत गान १६६६ जो टार से परिस्रावित किया जाता है । यह ताजा | बेरंग, पर पड़ा रहने से ललाई लिये गहरा भूरा होजाता है। (६) पिगमेंटम् पाइसिस लिक्विडी(Pigmentum Picis Liquidæ ) -ले। कत्रान प्रलेप । तिलाए कत्र रान । । योग–टार १ भाग, सुरासार (१० प्रति०) १ भाग दोनों को मिश्रीभूत कर लेवें। प्रयोगविचर्चिका ( Psoriasiz) और चिरकारी शुष्क पामा ( Ecsema) में इसका उत्तेजक रूप से व्यवहार करते हैं। पर चिरकालानुबन्धी शुष्क पामा में इसका सावधानी पूर्वक उपयोग करना चाहिये। (७) पिल्युला पाइसिस लिकिडी(Pilula Picis Liquilde) कतरान बटी, हब्ब कतरान । - योगटार १ भाग, मधुष्टी चूर्ण २ भाग, साबुन १ भाग, पल्विस टूगाकंथ कंपाउंड ! भाग। मात्रा-३ से ६ ग्रेन । (८) अंग्वेण्टम् पाइसिस मॉली- ( Unguentum Picis Molle ) मृदु कत्रानुलेपन, मरहम कुत्रान मुलायम । - योग-७१ भाग, बीज बैक्स १४.५० भाग, बादाम का तेल (श्रामण्ड ऑइल) वज़न से .. १४.५० भाग पिघलाकर मिटित कर लेवें। गुण धर्म तथा प्रयोग यूननानी मतानुसारप्रकृति-शेख ने चौथी कक्षा में उष्ण और रूक्ष और साहब मिन्हाज ने तृतीय कक्षा में उष्ण एवं रूक्ष लिखा है और यह सत्य प्रतीत होता है। प्रतिनिधि-सम भाग मिट्टी का तेल, जावशी और अर्द्ध भाग (बजन में) बेद सादा का तेल । गुण, कर्म, प्रयोग-यह प्रवल अवसन्नता जनक है और शीत जन्य वेदना को शमन करता है । शीतजन्य शिरःशूल में इसे ललाट पर लगाने से बड़ा उपकार होता है । इसे चतु के आस-पास लेप करने से ज्योति बढ़ती है, इसे शरीर पर लगाने से शरीरगत दाग़ और धब्बे मिटते हैं। इसे अकेला कान में टपकाने से कर्ण कृमि नष्ट होते हैं । इन्न जुहर ने इस हेतु इसे सिरके में - मिलाकर उपयोग करने का विधान किया है। इसे जिफ्त के साथ पानी में घोलकर कान में डालने से कर्णनाद रोग शमन होता है ।। इसके । दाँतों पर मलने से वायु एवं शीत जन्य दंत शूल मिटता है। यदि दांतों में कीड़े लग जायें तो उक्त अवस्था में भी इसे लगाना चाहिये । जैतून के तेल और जौ के आटे तथा पानी में मिलाकर उर और कंठ पर प्रलेप करने से भीतर जो द्रव संचित होता है, वह द्रवीभूत हो जाता है और वह फेफड़े से निःसृत होकर फेफड़ा शुद्ध हो जाता है। इसको मधु में मिलाकर चाटने से पुरानी खाँसी मिटती है। शेख़ के लेखानुसार इसे १॥ ौकिया (३ तो० ५ मा० ५ रत्ती ) की मात्रा में चाटने से फुफ्फुसीय व्रण और क्षतादि श्राराम होते हैं। सदीद गाज़रुनी ने कानून की टीका में उक्त कथन पर अत्यंत आश्चर्य प्रकट किया है। इनके कथनानुसार यदि १॥ ौकिया के स्थान में शेख १॥ दाँग अर्थात् ह रत्ती भी लिखते, तो भी अनुपयुक्त ही होता । क्योंकि फुफ्फुसगत विस्फोट रोग में ज्वर साथ होता है और शेख के मत से कतगन चतुर्थ कक्षा में उष्ण एवं रूक्ष है । कारण यह जान पड़ता है कि शेख ने बिना समयानुकूल मात्रा को कम किये । दीसकरीदसोक्त कथन की अक्षरशः नक़ल करदी है, जो उचित नहीं है । साहब मिन्हाज तो यहां तक कहते हैं कि क़तूरान को केवल वाह्य उपयोग में लाने के सिवाय इसका आभ्यंतर उपयोग ही न करें। इसमें संदेह नहीं कि वास्तव में यथा संभव अकेले वा बिना दपध्न द्रव्य के इसका भक्ष्य-औषध में व्यवहार न करें। इसे शिश्न पर लगाकर स्त्री-संग करने से गर्भधारण नहीं होता । इसे गर्भाशय के भीतर स्थापन करने से गर्भपात हो जाता है और खून जारी हो जाता है । इसे अल्प मात्रा में गुदा के भीतर रखने से प्रांत्रकृमि नष्ट होते हैं। इसकी वस्ति निरापद नहीं है। यदि विना इसके काम न चले, तो अत्यल्प मात्रा में वस्ति में प्रयोगित करें। इससे वीर्य विकृत हो जाता है। इसके खाने से श्लोपद और पिंडली की रग फूल जाने
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
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